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Tuesday, September 14, 2010

मैं और शब्द !

किताब के लिखे हर्फ़-
अक्सर पूछते हैं मुझसे,
'क्या है कसूर हमारा'!

कभी तुम हमें बनाते हो ,
आंसुओं का सवब,
कभी ये चेहरे के शिकन 
बन जाते है!
कभी 'गमगीनी' के बादल-
तो कभी , आशाओं के सौगात लाते हैं! 
खिलौनों के चाबीओं की मानिंद ,
उमेठ देते हो,कभी तुम!
कभी-गिरा देते हो फर्श पर,
तो कभी 'अर्श' के सितारे बना देते हो 
हम-केवल मनोरंजन के सामा हैं ,
तुम्हारे लिए !

मैं कहता हूँ-भाई मेरे,
तुमने ही तो जहाँ बनाये हैं ,
ख्वाब पूरे किये तुम्ही ने-
तुम्ही ने आशियाँ बसाये हैं.
तन्हाइयों को राहत दिया है,
तुम्ही ने .
तुम्ही ने तो ,
'इंसां' बनाये हैं!

हर्फ़ का एक टुकड़ा -
मुस्कुराता है.
फ़िलवक्त खेल रहे हो, तुम हमसे,
उकेरते हो अक्स हमारा -
कठपुतलियों की मानिंद -
खेंच देते हो डोर हमारी ,
और,
ढील देकर ,कभी हमें पुचकारते हो!

फिर वही ,शिकवा -वही शिकायत,तुम्हारी!
हम नहीं हैं, खेंचते  डोर ,
तुम ही हमें बांध लेते हो,   
उँगलियों को हमारे,
देते हो जुम्बिश,
'अक्स ' अपना ,खुद ही-
बना लेते हो!


3 comments:

वीना श्रीवास्तव said...

फिर वही ,शिकवा -वही शिकायत,तुम्हारी!
हम नहीं हैं, खेंचते डोर ,
तुम ही हमें बांध लेते हो,
उँगलियों को हमारे,
देते हो जुम्बिश,
'अक्स ' अपना ,खुद ही-
बना लेते हो

भाव भी सुंदर हैं और रचना भी...ऐसे ही लिखते रहिए

वीना श्रीवास्तव said...

फिर वही ,शिकवा -वही शिकायत,तुम्हारी!
हम नहीं हैं, खेंचते डोर ,
तुम ही हमें बांध लेते हो,
उँगलियों को हमारे,
देते हो जुम्बिश,
'अक्स ' अपना ,खुद ही-
बना लेते हो

भाव भी सुंदर हैं और रचना भी...ऐसे ही लिखते रहिए

ASHOK BAJAJ said...

आपका पोस्ट सराहनीय है . हिंदी दिवस की बधाई .