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Friday, March 27, 2015

  कोशिशें की हमने हज़ार तुम्हे अपने रंग में रंगने की
    रंग अपने ही रगे -आगोश  चढ़ आया  !
   घिरता रहा खुद ही मकड़-जाले में मैं तो 
    होश आया ही कहां ,ज़िद ने' रूप' अपनी, हमे उलझाया !

Saturday, August 23, 2014

चिंताएं !

कुछ  फ़र्क़ नही पड़ता उन्हें 
कि  तुम्हारे घर मे ए सी विंडो है या स्प्लिट 
 या कि तुम्हारे ड्रेसिंग टेबल पर 
किस ब्रांड की परफ्यूम  है 
तुम्हारे कुत्ते (जिसे तुम अपने बेटे से भी ज़्यादा प्यार करते हो )
के गले में  पड़ा पट्टा 
कहाँ से इम्पोर्ट किया है तुमने 
तुम्हारे आलिशान बंगले के बाहर की 
वो इबारत 
"कुत्तों से सावधान" ?
से उनकी पेशानी पर नही पड़ता कोई बल 
उन्हें तो इस बात से  नही पड़ता की तुम्हारी 
पत्नी या बेटी के शरीर का ज़्यादातर हिस्सा 
खुला  क्यों है !
जबकि तुम संपन्न हो 
उन हिस्सों को पूरी तरह से महफूज़ रखने में !

 उनकी चिंताएं -
तो बस  इतनी सी हैं 
कि आज रात का चूल्हा जलेगा भी या नही !
कि किसके हिस्से में  आएँगी 
कि मुन्नी  की झीनी हो चली चुन्नी को कैसे बदलें 
जबकि तुम जैसों की बेधतीं नज़र उसको हर रोज़ 
अधूरा करती जाती है !
कि इस बार जब बरसेगा भादो 
तो टूटी चारपाई किस कोने में -
बिना भींगे बिछ जाएगी !

Sunday, April 27, 2014

आदमी

बा-वज़ूद विसंगतियों के जीता है आदमी ,
तमाम उम्र ज़हर के घूँट पीता है आदमी !
हँसता बोलता चाहे दिखे जितना भी
सच है कि, अन्दर से रीता है आदमी  !

हम तो समझे थे कि रंगीनियाँ बिखरी हैं हरसू
चलती रहती है तल्खियों में ज़िन्दगी
घिस कर जा टूट जाती हैं एडियाँ
धोखे में चप्पलें सीता है आदमी

                            रूप


Saturday, September 21, 2013

बस , यूँ ही !

आज लौटा  हूँ तो , लगने लगे हो तुम अपने
भूला था इन गलियों को , खता मेरी ही थी
तुम तो खोल कर बाहें ,आतुर हो  स्वागत को
प्यार तो नहीं , ख्वाहिश सजा की मेरी ही थी
कैसे नहीं आता , पल जो  बीते , खलिश,
 खेंच कर ले ही आई
इतना भी कमज़र्फ नहीं ,
भूल तुम्हे , किसी और को  अपनाता ,
ये तो न कहूँगा ये अदा तो है ,
पर ये अदा  मेरी ही थी !
चलो भूल जायें -शिकवे- गिले .
फिर से नया  आशियाँ बनाएं  ,
इल्तिजा ये तो मेरी ही थी .

Thursday, April 11, 2013

रीता रह जाता हूँ !


हर  बारिश  में  
तुम्हारे   पास  होने   का  अहसास 
 बुन  देता  है एक  गुंजलक
 मेरे  चारों  ओर ,
 बब्ध  जाते  हैं  हाथ  पांव 
 कैद  हो  जाती  हैं  सांसें 
वक्त  भी  जाता  है  ठहर 
 कुछ  लम्हों  के  लिए 
 और  गुंजलक  खुलने  पर 
 मैं  पाता  हूँ  कि  बारिश  ख़तम  हो  चुकी  है 
 और  मैं  रीता  रह  गया  हूँ .
ये खालीपन ,
तोड़ देता ,है  जीवन की सारी उम्मीदें 
तुम्हारी यादों की घटायें घनघोर हो जाती हैं 
बरसता है सावन घनघोर ,
यादें अधूरी ही बरस पाती हैं 
पकड़ने की आस में कुछ और बह जाता हूँ 
और, फ़िर…फ़िर मैं रीता रह जाता हूँ !

स्वीकार लो !

आज फिर से लौट आया हूँ तुम्हारी देहरी पर ,
 उल्लास वही पुराना फिर से लौट आया है 
उम्मीद है , स्वीकार लोगे तुम मुझे 
जैसा भी हूँ , हूँ तो आखिर तुम्हारा ही 
बंदिशें तोड़ डालीं हैं आज हमने ,
गुबार सारे धो डाले हैं .
अब तो नए आसमान  बनाऊंगा 
उचाईयों की डोर को दूंगा एक मांझा नया 
गुज़ारिश बस तुमसे है इतनी 
स्वीकार लो आज फिर तुम मुझे !

Monday, January 21, 2013

एक प्रश्न ?

आज सोचता हूँ , लिख डालूं इबारत एक दीवार पर 
पढ़े कोई, गुने कोई, या फिर यूँ ही एक सरसरी नज़र डालकर ,
चल दे कोई।
असर तो पड़ेगा ही , जिन्हें अर्थ मालूम होगा , और जो न समझ पाएं ,
वे भी अपने चिंतन में इनका ध्यान धरेंगे . 
पर  फिर ...........सोचता हूँ , इबारतें इतनी तो लिखी हैं , अर्थपूर्ण और अर्थहीन भी 
पढ़ते , गुनते भी हैं , लोग यहाँ .
कुछ डालतें  हैं सरसरी सी नज़र ,
और चल देते हैं . राह अपनी।
क्या होता नही असर उनपर, 
क्या चोट नही पहुंचाते वे शब्द। !
आज जो , जी रहे हैं हम .
उन इबारतों की परछाई है
या है , उन सरसरी निगाहों का असर !