बा-वज़ूद विसंगतियों के जीता है आदमी ,
तमाम उम्र ज़हर के घूँट पीता है आदमी !
हँसता बोलता चाहे दिखे जितना भी
सच है कि, अन्दर से रीता है आदमी !
हम तो समझे थे कि रंगीनियाँ बिखरी हैं हरसू
चलती रहती है तल्खियों में ज़िन्दगी
घिस कर जा टूट जाती हैं एडियाँ
धोखे में चप्पलें सीता है आदमी
रूप
तमाम उम्र ज़हर के घूँट पीता है आदमी !
हँसता बोलता चाहे दिखे जितना भी
सच है कि, अन्दर से रीता है आदमी !
हम तो समझे थे कि रंगीनियाँ बिखरी हैं हरसू
चलती रहती है तल्खियों में ज़िन्दगी
घिस कर जा टूट जाती हैं एडियाँ
धोखे में चप्पलें सीता है आदमी
रूप