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Sunday, April 27, 2014

आदमी

बा-वज़ूद विसंगतियों के जीता है आदमी ,
तमाम उम्र ज़हर के घूँट पीता है आदमी !
हँसता बोलता चाहे दिखे जितना भी
सच है कि, अन्दर से रीता है आदमी  !

हम तो समझे थे कि रंगीनियाँ बिखरी हैं हरसू
चलती रहती है तल्खियों में ज़िन्दगी
घिस कर जा टूट जाती हैं एडियाँ
धोखे में चप्पलें सीता है आदमी

                            रूप