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Sunday, March 27, 2011

                                                      तुम्हारे लिए !
विरोध के स्वर  विरल हो जाते हैं, जब  समाज सबलों की अनैतिकता का समर्थन करने लगता है ,और यह  अधिकतर तब होता है जब लाभ कुछ तथाकथित प्रतिष्ठित लोगों की चेरी होती है , ऐसे में सच्चा , सज्जन , इमानदार  और सटीक  व्यक्ति भी पथभ्रष्टता को प्रश्रय  देने के बारे में सोचने लगता है  पर सच्चरित्र जीवन की सच्चाई  तो यह नही हो सकती ! ऐसे में अत्यधिक आवश्यकता होती है , आत्मबल की ,और विरोध के विपरीत ख़म ठोककर  खड़े होना ही बहादुरी का पर्याय है . जिस प्रकार दीये की लौ  तेज़ आंधी में विचलित तो होती है , पर बुझती नहीं और अधिक जोर लगाकर उसका सामना करती है !

आज यह विचार अधिक प्रासंगिक है, क्योंकि सामाजिक उत्थान व स्वयं की जीवन्तता  को सिद्ध करने हेतु यह आवश्यक है .वर्तमान परिस्तिथियों  में  सामाजिक विद्रूपता व नीति ह्रास पर अंकुश हेतु यह आवश्यक है की नौजवान पीढ़ी विरोध करे , सार्थक विरोध करे ! और जो परिस्तिथियाँ ,सामाजिक उत्थान का अवरोध बनती हैं, उसे तोड़कर नए समाज का निर्माण करे !

कौन कहता है , आसमान में सुराख़ नहीं हो सकता ,
एक पत्थर तो तवियत से उछालो यारों !

बहुत ज़रूरी है  , हम जो काम हाथ मे लेते हैं, उसकी परिणति तक पहुंचें , यह नही कि  बस शुरू किया और विरोध होते ही ढीले पड़ गए !
मेरी पूर्व में लिखी एक कविता यहाँ प्रासंगिक है ,और इसलिए मैं इसका पुनर्लेखन यहाँ पर करता हूँ ............
विपदाएं तो आएँगी _सखा मेरे
जब भी लोगे तुम एक दृढ़ संकल्प
ठोकरें तो लगेंगी ही राह मे
बनना चाहोगे __जब एक विकल्प
नियति ने क्या ___कभी मारी है ठोकर !
उस संत को ,भरा हो जिसमे __केवल
___आत्मबल ____
ये , आत्मबल ही तुम्हे पहुँचायेगा
शिखर तक !
तुम अगर आज करो ____ एक संकल्प
विकल्प _तुम तो हो सकते हो
होगा न कोई , तुम्हारा विकल्प ....


अब यह पत्र/चिटठा लिखने कि आवश्यकता इसलिए पड़ी है,कि मेरी एक चर्चा में नौजवान मित्रों द्वारा कुछ अवसाद कि झलकियाँ देखने को मिलीं, और उनके लिए .............

तुम चीर दो सीना चट्टानें आज़म का  
रास्ता खुद-ब-खुद दीदारे-यार आएगा !

Wednesday, March 23, 2011

            वो दिन ......!


वो दिन कितने सुखकर थे
जब तुम्हारी ऊँगली थामे .
घंटो भर गलियों के घेरों में
तुम्हारे तोतले स्वर-रस
की मिठास कानो में घुलते.
समय पंख लगाकर उड़ जाता था .

आज का एक दिन है ,जब
तुम्हारे सानिध्य की आस
लगते हैं हम ,
तुम तेजी से निकल जाते हो
सैकड़ों ज़िम्मेदारियों से
आबद्ध, तुम हमे भूल जाते हो !

वो दिन कितने सुखकर थे
तुम्हारी चपलता ,
हमारा रोम-रोम पुलकित करता.
तुम्हे जो ठेस लगती-
दिल हमारा रोता .
तुम्हारी बलैयाँ लेते .

आज का एक दिन है ,जब
दर्द से कराहते हम ,
एक छोटी सी शिकायत करते हैं .
तुम्हे, कहते सुनते हैं
'छोड़ो न यार ,
इनका तो रोज का नाटक है
हम अपनी शाम क्यूँ खराब करें !

Monday, March 21, 2011

कल  की  अनुभूति  का एक चित्र प्रस्तुत करने की कोशिश करता हूँ . आप चाहें तो  इसे सराह भी सकते हैं...............आपकी टिप्पणियां आमंत्रित हैं !




तिरछी चितवन, भींगा तन-मन 
महका -महका सा है मधुवन 
छलके है मृदु-प्रेम तुम्हारा 
आह्लादित होता है जीवन !

आज सरस है नेह तुम्हारा 
कलकल बहती जीवन -धारा
जी करता है , डूबूँ इनमे 
कर दूं अपना जीवन -अर्पण !

तुम जो आये ,सावन आया 
प्रेम-सुधा का रस बरसाया 
छुन-छुन, छन -छन बजे पायल 
गुंजित हुआ आज घर -आंगन !

तिरछी चितवन, भींगा तन-मन
महका -महका सा है मधुवन !

Wednesday, March 16, 2011

होली है भाई होली है 
बुरा न मानो होली है 

कुछ भी डालो ,चाहे कीचड़
रंगों की रंगोली है 

राधा हो या मीरा हो
कंकड़ हो या हीरा हो 
करो टिप्पणियों की बरसात 
 ठोस ही है या पोली है.

कुछ तो मीठी लगे गुझिये सी
कुछ कडवी, रंगों मिश्रित सी 
जैसी भी हो , हँसते जाओ
होली की ठिठोली है .

मौका है बस मौज मनाओ 

ग़मगीन हो तुम रास रचाओ 
फुहार रंगों की बरसाओ
कहदो आज बिचौली है 

रस-बयार फागुन का है 
मौका बस पाहून का है,
पहुँचो बस, जहाँ जी चाहे 
दिलवालों की दिलजोली है 

ढोल नगाड़े खूब बजाओ 
नाचो ,गाओ दिल बहलाओ 
बरसाने  की  गारी गाओ
हिल-मिल जाओ ,द्वेष भुलाओ 
अब तो सब हमजोली है 


होली है भाई होली है...................

सभी बंधुओं/बांध्वियों  को होली की हार्दिक शुभकामनायें, गुझिये व रंगों की होली का आमंत्रण है . आप सभी सादर पधारें.

Monday, March 14, 2011

    जापान के लिए 

नम हैं आँखें, अंतर गीला 
देखी प्रकृति की विनाशकारी लीला 

मानव जाति के प्रेरणाश्रोत तुम
छोटे कद के देवदूत तुम !

साहस अनुकरणीय तुम्हारा 
पावन हृदय, जाने जग सारा 

विश्व पताका फहराओगे 
हतभागी हो, उबर जाओगे !

तुमने  झेले, हिरोशिमा-नागासाकी 
अनुकरणीय साहस की झांकी 

नया फुकुसिमा तुम बसाओगे 
विश्वास है , उबर जाओगे 

दुःख है हमें, हमारे भाई 
ईश्वर है , वो नहीं कसाई !

प्रण करते हैं , होंगे सहभागी 
तुम्हारे लिए ,
भगवन  से  हम भी  हैं रागी !

Sunday, March 13, 2011

                                                लिखने का उद्देश्य !

ब्लॉग्गिंग की दुनिया में मेरा पदार्पण सं 2008 में हुआ था. तब शायद ब्लोग्स  इतने पॉपुलर नहीं थे . मन में उठते विचारों की अभिव्यक्ति का एक सुगम,सटीक,उपयुक्त व मुफ़ीद ज़रिया लगा था मुझे . कविता तो मैं पहले से करता आ रहा था ,पर तब केवल मेरे कुछ मित्र ही इन्हें सुनते थे, या मुझे जानते थे , पर ब्लॉग्गिंग के माध्यम से अब कई लोगों की टिप्पणियां प्राप्त होती हैं.अच्छा लगता है, जब कोई सराहता है या हौसला -अफजाई होती है. लोग कह्ते भी हैं कि लेखन टिप्पणियों के लिए नहीं होना चाहिए, ठीक भी है, उद्गार तो उद्गार हैं  और इन्हें दर्शाने का कोई आसान माध्यम है . ( यहाँ प्रकाशन के लिए गुटबाजी, पहुँच या मठाधीशी की आवश्यकता नहीं है.),तो फिर टिप्पणियों की चिंता क्यों !  परन्तु यह भी सच है क़ि टिप्पणियों के बाद उत्साह द्विगुणित हो जाता है , और शायद यह  फ़र्ज़  बन जाता है कि टिप्पणीकार को कुछ और भी बताया जाय.
साहित्य की सशक्ति मेरे विचार में यह नही है कि आप कितना उम्दा लिखते हैं , बल्कि इसमें है कि आप कितना उपयोगी लिखते हैं. शब्दों के माध्यम से ही सही , यदि सामाजिक उत्थान हों, संवेदनाओं  को बल मिले , समाज की उपयोगिता व इसके समुचित निर्माण का भान हो सके तो शब्द प्रभावी हैं.
कई बार लोग यह भी कहते हैं - " रूप, जब आप रसायन के शिक्षक  हैं , तब साहित्य के प्रति इतनी अभिरुचि क्यूँ !"  और मैं उन्हें उत्तर देता हूँ.  "रसायन विज्ञान तो प्रयोगशाला तक सीमित है  , परन्तु साहित्य असीमित है, विस्तृत है. रसायन के माध्यम से मैं अपने शिष्यों से रु-ब-रु होता हूँ , जबकि साहित्य के माध्यम से मैं अपने गुरुओं से ! "  और तब मेरे मित्र अनुत्तरित हो जाते हैं .
कई बार कविताओं की श्रेणी पर बात होती है.  कभी रोमांटिक कविताएँ , तो कभी विशुद्ध दार्शनिक .... दरअसल दार्शनिक होना ही सामाजिक होना है , ऐसा मै सोचता हूँ. सच कहूँ तो दर्शन ही जीवन है . शिशु के पहले कदम से उसके अवसान तक जीवन, दर्शन ही तो है . और कविताओं के माध्यम से इसका प्रदर्शन आसान हो जाता है .
आज आभारी हूँ मैं उन अपरिचित मित्रों का ( व्यक्तिगत रूप से ) जिन्होंने मेरे उद्गारों पर टिप्पणियां की हैं या कर रहे हैं.
लिखने के कई कारण होते हैं.पर उनके प्रकाशन का मात्र एक कारण होता है . अधिक से अधिक लोगों तक  उसे पहुँचाना !

 ये चित्र जो उकेरे हैं मैंने कागजों पे 
तुम्हारे ही तो अक्स हैं यार मिरे ! 

विचारों की श्रृंखलाओं को  क्रमबद्ध करने की खूबी नही है शायद मुझमे . जब जो जी में आता है , लिख देता हूँ . कितना उपयोगी है, कितना नही , यह मै नही जानता. कितनो तक पहुंचेंगे मेरे  विचार, कौन कुछेक शब्दों के बाद ही "अगला ब्लॉग " क्लिक करेगा, पर खुद को संतुष्ट करने हेतु यह भी आवश्यक है, कि शब्दों को सहेजकर किसी  एक प्लेटफ़ॉर्म पर प्रदर्शित करें. 
ब्लोग्गर्स  की दुनिया में विविधताएँ भी हैं . कुछ खालिस कविताएँ करते हैं , कुछेक यादों के संस्मरण प्रस्तुत करते हैं और कुछ सामाजिक सरोकार व उत्थान की बातें करते हैं . कुछ ऐसे भी हैं जो रोजमर्रा की वस्तुओं पर केन्द्रित होकर कविताएँ करते हैं .
उपयोगिता सभी की है और स्थान भी सभी के निर्धारित हैं. 
फिर ,  जब कभी मै अनचाही टिप्पणियां पढता हूँ तो लगता है , यहाँ भी मठाधीशी, गुटबाजी व लोब्बींग शुरू है , जो औचित्य विहीन  है .  क्या शब्दों के माध्यम से आप सर्वश्रेष्ठ हो सकते हैं.  कभी नहीं. आप तो बस  अपना काम कीजिये .
और वैसे भी , वो कहते हैं न ..
जाकी रही भावना जैसी......

लगता है , लेख कुछ लम्बा हो चला है , तो फिलवक्त .....क्रमश: 

इक आस है पहुंचोगे  तुम भी मकां तक 
बस रहगुजर चलते चलो..बस रहगुजर चलते चलो .......!
 

Friday, March 11, 2011

                                  यूँ ही ,बिखरा सा  !

भरी दोपहरी , शब्दों  के  आड़े -तिरछे जंजाल बनाते हुए मैं थक गया तो कलम  उठाकर  ताक पर  रख  दिया . डायरी के पन्ने मेरी ओर बेदिली से ताक रहे थे और मैं नासमझी की मुद्रा में उन्हें ही घूर रहा था . सोचता रह गया -क्या करूँ ! राह पर चलते हुए लंगड़ी घोड़ी की सायकिल , पीछे दौड़ता छोटा सा बच्चा और मकान की खिड़की से झांकती बेजार सी एक अधेड़ स्त्री ! विक्षिप्तता की हद तक परेशां होते हुए, किशोर कुमार की तरंगे कानो में गूंजने लगीं..............
ये क्या हुआ....कैसे हुआ......कब हुआ .....क्यों हुआ ......................
और तब .....


नहीं समझ सकते तुम हमारे मन की व्यथा 
आकुलता की परिणति नहीं होती शायद !

यदि वेदना हमारे शब्दों
की भाषा का आदेश मानती,
यदि हवा का वेग हमारे ,
मनोभाव संचालित कर पाता तो शायद !
दिल से आती है एक तल्ख़ सी सदा
लगता है ,पिछले कई जन्मो की
गूंज है शायद !
तुम्हारा साथ,
जीवन का हर पल ,
खुशियों की सौगात लाती
तो शायद !
पेड़ों से झरते पत्ते ,
नि:शब्द काली सडक पर
न बिखरते .
अपने झकझोरे जाने पर ,
करते वे प्रतिरोध ,
निर्विरोध नही गिर पड़ते
तो शायद !
कुछ पंक्तियाँ हैं, जो बिखरी पड़ी  हैं , इधर -उधर
इन्हें सहेजा होता , तो शायद !
पुरानी उजाड़ सी इक हवेली है ,
रौशनी का इक  दीया जलाया होता
तो शायद !

Tuesday, March 8, 2011

                                                            उम्मीदें !
  आज एक कविता पढ़ी , सामयिक है , क्योंकि जिस तरह कि अपेक्षाएं हम अपने बच्चों से करते हैं , और जिस तरह का बोझ उनके मन -मष्तिष्क पर डाले हुए हैं ,उससे लगता है कि कहीं-न-कहीं इस कविता का औचित्य है, एक बार फिर साफ़ कर दूँ कि यह कविता मेरी नहीं है .पर मुझे लगा कि बहुत सरे ऐसे भी होंगे जिन्होंने यह कविता देखी या पढ़ी नहीं होगी ...इसलिए....

पापा कहते बनो डॉक्टर ,
मम्मी कहती इंजिनियर .
भैया कहते इससे अच्छा -
सीखो तुम कंप्यूटर.

चाचा कहते बनो प्रोफेसर 
चाची कहती अफसर   
दीदी कहती आगे जाकर ,
बनना तुम्हे कलेक्टर .

दादा  कहते फौज में जाकर , 
जग में नाम कमाओ!
दादी कहती घर में रहकर
ही उद्योग लगाओ !

सबकी अलग-अलग अभिलाषा 
सबका उनसे नाता 
लेकिन मेरे मन में क्या है 
कोई समझ ना पाता  !


क्या आपको नहीं लगता कि उम्मीदों  की फेहरिस्त कुछ  ज्यादा ही लम्बी हो गई है .अगर हाँ तो फटाफट बताएं  , क्या सही होगा और क्या ग़लत और क्यूँ भाई !

 

Monday, March 7, 2011

आया फागुन, आया फागुन
तन -मन को हर्षाया फागुन
मधुर-मधुर  बरसे बयार
जीवन को सरसाया फागुन


खिल उठी हैं कलियाँ प्यारी
चढ़ती  जाती है बस खुमारी
मौसम का खुमार  है तारी
हर -दिल को धडकाया फागुन 

 आया फागुन, आया फागुन.


बासंती बयार अति भाये
मधुर-मदिर सा सब  पर छाये 
उमंग-तरंग ,जन-जन मुस्काए 
गुन-गुन-गुन गुंजाया  फागुन 


आया फागुन .........

Sunday, March 6, 2011

          और कुछ देर ठहर
और कुछ देर ठहर, और कुछ देर न जा 
ज़िन्दगी की शाम यूँ उदास  न कर.
उम्मीदों की शमा अभी तो जलाई है 
अभी तो बस तेरी याद आयी है. 
यादों की मदहोशी को बर्बाद न कर
जिंदगी की शाम को यूँ उदास न कर.


और कुछ देर ठहर, और कुछ देर न जा 
तेरे सानिध्य से दिल मेरा महक जाता है 
बर्बादे-इश्क भी कुछ आस सा दिलाता है 
हमारी आस को तू और भी बे -आस न कर .
और कुछ देर ठहर..............................

तेरे काँधे पे सर रखकर, सुकूँ पा तो लूँ मैं
उदास रात को ,कुछ और तो   महका लूँ मैं.
इस रूत को हसीं और तो बना लूँ मैं 
तेरे गेसुओं के फैलाव का विस्तार तो कर 
और कुछ देर ठहर....... और कुछ देर न जा ...!