उम्मीदें !
आज एक कविता पढ़ी , सामयिक है , क्योंकि जिस तरह कि अपेक्षाएं हम अपने बच्चों से करते हैं , और जिस तरह का बोझ उनके मन -मष्तिष्क पर डाले हुए हैं ,उससे लगता है कि कहीं-न-कहीं इस कविता का औचित्य है, एक बार फिर साफ़ कर दूँ कि यह कविता मेरी नहीं है .पर मुझे लगा कि बहुत सरे ऐसे भी होंगे जिन्होंने यह कविता देखी या पढ़ी नहीं होगी ...इसलिए....
आज एक कविता पढ़ी , सामयिक है , क्योंकि जिस तरह कि अपेक्षाएं हम अपने बच्चों से करते हैं , और जिस तरह का बोझ उनके मन -मष्तिष्क पर डाले हुए हैं ,उससे लगता है कि कहीं-न-कहीं इस कविता का औचित्य है, एक बार फिर साफ़ कर दूँ कि यह कविता मेरी नहीं है .पर मुझे लगा कि बहुत सरे ऐसे भी होंगे जिन्होंने यह कविता देखी या पढ़ी नहीं होगी ...इसलिए....
पापा कहते बनो डॉक्टर ,
मम्मी कहती इंजिनियर .
भैया कहते इससे अच्छा -
सीखो तुम कंप्यूटर.
चाचा कहते बनो प्रोफेसर
चाची कहती अफसर
दीदी कहती आगे जाकर ,
बनना तुम्हे कलेक्टर .
दादा कहते फौज में जाकर ,
जग में नाम कमाओ!
दादी कहती घर में रहकर
ही उद्योग लगाओ !
सबकी अलग-अलग अभिलाषा
सबका उनसे नाता
लेकिन मेरे मन में क्या है
कोई समझ ना पाता !
क्या आपको नहीं लगता कि उम्मीदों की फेहरिस्त कुछ ज्यादा ही लम्बी हो गई है .अगर हाँ तो फटाफट बताएं , क्या सही होगा और क्या ग़लत और क्यूँ भाई !
5 comments:
इतनी अपेक्षाएं ...बोझ बन गयी हैं....
sahi kaha monika ji, life has been mechanised...........
Decisions should not be imposed. Children must have the freedom to choose their career.
Parents can inspire and motivate ,but the final decision should be their own.
Thanx Zeal.............!
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