किताब के लिखे हर्फ़-
अक्सर पूछते हैं मुझसे,
'क्या है कसूर हमारा'!
कभी तुम हमें बनाते हो ,
आंसुओं का सवब,
कभी ये चेहरे के शिकन
बन जाते है!
कभी 'गमगीनी' के बादल-
तो कभी , आशाओं के सौगात लाते हैं!
खिलौनों के चाबीओं की मानिंद ,
उमेठ देते हो,कभी तुम!
कभी-गिरा देते हो फर्श पर,
तो कभी 'अर्श' के सितारे बना देते हो
हम-केवल मनोरंजन के सामा हैं ,
तुम्हारे लिए !
मैं कहता हूँ-भाई मेरे,
तुमने ही तो जहाँ बनाये हैं ,
ख्वाब पूरे किये तुम्ही ने-
तुम्ही ने आशियाँ बसाये हैं.
तन्हाइयों को राहत दिया है,
तुम्ही ने .
तुम्ही ने तो ,
'इंसां' बनाये हैं!
हर्फ़ का एक टुकड़ा -
मुस्कुराता है.
फ़िलवक्त खेल रहे हो, तुम हमसे,
उकेरते हो अक्स हमारा -
कठपुतलियों की मानिंद -
खेंच देते हो डोर हमारी ,
और,
ढील देकर ,कभी हमें पुचकारते हो!
फिर वही ,शिकवा -वही शिकायत,तुम्हारी!
हम नहीं हैं, खेंचते डोर ,
तुम ही हमें बांध लेते हो,
उँगलियों को हमारे,
देते हो जुम्बिश,
'अक्स ' अपना ,खुद ही-
बना लेते हो!
3 comments:
फिर वही ,शिकवा -वही शिकायत,तुम्हारी!
हम नहीं हैं, खेंचते डोर ,
तुम ही हमें बांध लेते हो,
उँगलियों को हमारे,
देते हो जुम्बिश,
'अक्स ' अपना ,खुद ही-
बना लेते हो
भाव भी सुंदर हैं और रचना भी...ऐसे ही लिखते रहिए
फिर वही ,शिकवा -वही शिकायत,तुम्हारी!
हम नहीं हैं, खेंचते डोर ,
तुम ही हमें बांध लेते हो,
उँगलियों को हमारे,
देते हो जुम्बिश,
'अक्स ' अपना ,खुद ही-
बना लेते हो
भाव भी सुंदर हैं और रचना भी...ऐसे ही लिखते रहिए
आपका पोस्ट सराहनीय है . हिंदी दिवस की बधाई .
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