एक संपूर्ण आईने से झांकती है-
टूटी हुई एक तस्वीर ,
चेहरे पर है शिकन,पेशानी पे है बल !
अचानक,हवा के एक हलके झोंके ने -
तोड़ डाला है आइना _
दर्पण का टुटा हुआ एक अंश-
आवाज़ देकर कहता है _
'सभ्य समाज' ! देखो, इस अंश मे मेरा _
एक संपूर्ण अस्तित्व समां गया है.
1 comment:
बहुत गहरी रचना.
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