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Saturday, September 18, 2010

बूँदें बहार की!

खिडकियों से झांकते अक्स-
रिमझिम बूँदें बहार की,
चिथड़ी धोती से लिपटा
एक बुढ़ापा! 
न जाने किन ख्यालों मे है -
ये जहाँ,
कि हम खुशहाल हैं 
सोने कि इस धरा पर.
पर, जो निकाल रहे हैं ,
सोना, इस धरती का-
क्या उन्हें पत्थर भी है उपलब्ध 
एक घर बनाने को?
क्या,लकड़ी मयस्सर है उन्हें ,
बनाने को एक खिड़की,
और झाँकने को-
रिमझिम, बूँदें -बहार की!


1 comment:

Anonymous said...

Sir apka likha hua bunde bahar ki padha bahut accha laga.