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Monday, September 27, 2010

क्या नाम दूँ,इसे!

वो चिर-परिचित,चिरनवीन मुस्कान 
तुम्हारे मादक अधरों की,
देखता है,पूनो का चाँद
तुम्हे क्या,खबर नहीं इसकी?


चांदनी,बिछी जाती है
तुम्हारे कोमल पैरों के तले
ये भोलापन,कहाँ से पाया है,
बताओ ना! ये अदाएं हैं किसकी
सांसों की महक -तुम्हारी.
जैसे खिल उठे अगणित चन्दन-वन
अधखिले अंगों का मधुमास!
अधीर होता है, पागल मन.
प्यास बढाती है,
महक,तुम्हारी वेणी की.


आओ ना, 
हाथों मे हाथ लिए,
हम दूर चलें.
मंजिल हो नई,
धूप हो तुम्हारे ,चेहरे का 
छांव हो,तुम्हारे आँचल की !

3 comments:

ZEAL said...

आओ ना,
हाथों मे हाथ लिए,
हम दूर चलें.
मंजिल हो नई,
धूप हो तुम्हारे ,चेहरे का
छांव हो,तुम्हारे आँचल की !

Beautiful !

.

वीना श्रीवास्तव said...

आओ ना,
हाथों मे हाथ लिए,
हम दूर चलें.
मंजिल हो नई,
धूप हो तुम्हारे ,चेहरे का
छांव हो,तुम्हारे आँचल की !
सुंदर रचना...

संजय भास्‍कर said...

आओ ना,
हाथों मे हाथ लिए,
हम दूर चलें.
मंजिल हो नई,
धूप हो तुम्हारे ,चेहरे का
छांव हो,तुम्हारे आँचल की !

गजब कि पंक्तियाँ हैं ...

बहुत सुंदर रचना.... अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया...