तुम्हारी वाणी -भादो की उछ्रिन्खलता ,
मन मेरा गाने लगा था
तुम्हारे ह्रदय मे पूर्णता ढूंढ रहा था मै!
विलीन-पूर्व मुहूर्त की वो स्मृति,
नभ के तारे भी जब क्लांत थे
तुमने मुझे अभय दिया था !
उच्छवासित आवेग से-
काँपा था मेरा मन,
फिर भी पूछा था मैंने -तुमसे,
तुम-कितनी समर्पित हो,मेरे लिए!
'सम्पूर्ण' तुमने कहा था
ऐसी पूर्णता, किसी ने न दी मुझे-
मै रो पड़ा था!
3 comments:
रूप जी आपका ब्लॉग हमरे ब्लॉग लिस्ट में है..जबतक तकनीकी खराबी न हो जाए आपका कोई भी पोस्ट छपते ही हमको देखाई देगा… आप इतने अच्छे कवि हैं, आपका अभिव्यक्ति में ताकत है, आपका भावनाओं में ताजगी है, फिर आपको हमको बोलाने का जरूरत नहीं है , नहीं आते त हमरा नोकसान होता कि एतना अच्छा कविता से बंचित रह जाते.
ई जो आप संपूर्णता का बात किए हैं न एही सच्चाई है. सीमों द बुवाँ एक जगह कहती हैं कि नारी अपने पुरुष को सम्पूर्णता से प्यार करती है, इसलिए उसकी हर नज़र उस एक नज़र में समाई रहतीहै जो वह किसी दूसरी स्त्री की तरफ उठाता है.. बस इस आँसू को याद रखिए, यही सम्पूर्णता जीवन को स्वर्ग बना देगी, सुखों की सम्पूर्णता से!!
so much emotions are there in your words
उम्दा भाव।
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