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Thursday, September 23, 2010

बाबूजी

आज पितृपक्ष की पहली तिथि को बाबूजी की याद आ रही है, और उन्ही को समर्पित है मेरा यह आलेख, क्योंकि आज मै जो कुछ भी हूँ,उन्ही की वज़ह से . मेरा ख्याल है कि इस बात से लगभग ८०% लोग सहमत होंगे, शायद गलत भी हो मेरा ख्याल.
बाबूजी बड़े गुस्सैल व्यक्ति थे , परन्तु इतना भर कह देने से उनके व्यक्तित्व का आकलन नहीं हो सकता, किसी भी व्यक्ति मे केवल एक ही गुण या अवगुण नहीं होता और समग्र व्यक्तित्व को जानने के लिए एकपक्षीय भी नहीं हुआ जा सकता.हम छः भाई बहन हैं , पांच भाई और एक बड़ी बहन. मैं सबसे छोटा हूँ और शायद बाबूजी को बहुत कम जान पाया हूँ , पर बाबूजी मुझे सबसे ज़्यादा प्यार करते थे. 'प्यार'-उस सामाजिक व्यवस्था मे ,जब अपने बच्चों के प्रति लाड़ प्रदर्शित करना अपराध था और सामाजिक अवहेलना की दृष्टि मे आता था. खैर, बाबूजी को ऐसा  लगता था क़ि मै शायद जीवन मे सफल नहीं हो पाउँगा और इसलिए भी वे मुझे लेकर आश्वस्त नहीं थे. मुझे ,तब ज्ञान नहीं था क़ि जीवन मे कुछ बनने के लिए परिश्रम की ज़रूरत होती है, और मै अलमस्त जीवन के मज़े ले रहा था, हम दो सबसे छोटे, मैं और मुझसे दो-तीन साल बड़े मेरे भाई, समानरूप से मित्रता और शत्रुता करते हुए बढ़ रहे थे. मेरे भाई को फिल्मो का शौक था और मेरे कपड़ों, पेंसिलों,चप्पलों या यूँ कह लें कि मेरी नफासत पर उनका अधिकार दबंगई कि हद तक था. पिताजी हम दोनों  भाइयों  को साथ ही बिठाकर पढ़ाते. पढ़ाना कम और पिटाई ज़्यादा होती, क्योंकि हम बाल-सुलभ आदतों के कारण पढने मे कम और लड़ने मे अधिक रूचि लेते थे.बाबूजी बड़े सामाजिक व्यक्ति थे और लोगों पर उनका प्रभाव भी था , गाँव के लोग उनसे सलाह-मशविरा के लिए आते रहते और ये कार्यक्रम हमारी उपस्तिथि मे होता,क्योंकि हम वहां पढाई के लिए मौजूद होते.पिताजी तब बड़े सामाजिक और जागरूक हो जाते थे. और घर मे माँ और भाभी कि शामत!(उन्हें चाय जो बनानी पड़ती थी ),उस समय हमें लगता था , बाबूजी कितने शांत हैं,अब समझ मे आता है, जब मेरे बच्चे बड़े हो रहे है, कितना सार्थक था ,बाबूजी का गुस्सा ! बाबूजी ,जब तक रहे उनका ठसका कभी कम नहीं हुआ, बुढ़ापे मे भी , जब वे अशक्त हो गए, और बिस्तर पकड़ लिया,तब भी उनका स्वाभिमान कम नहीं हुआ,और अशक्त होते हुए भी उन्होंने हमेशा स्व-धीन ही रहना चाहा . आज बाबूजी कि सीख,मेरे मन-मस्तिष्क मे जीवंत है, 'कभी भी स्वयं की नज़रों मे गिरने वाला काम न करो! 'बाबूजी का स्वर्गवास ०९ अक्तूबर २००९ को उस वक़्त हुआ जब मै All India Radio इलाहबाद अपनी रेकॉर्डिंग के लिए जा रहा था,और जैसा कि बाबूजी का आदेश था, अपने वर्तमान को कभी भी भविष्य के लिए न टालो , मैंने भी रेकॉर्डिंग पूरी कि और तभी उनकी अंत्येष्टि के लिए गया!
फ़िलहाल यही श्रधान्जली है मेरी, हमारे बाबूजी के लिए..........बाकी फिर कभी.................

4 comments:

मनोज कुमार said...

दिल को छू गई आपकी बातें। इतना भावविभोर कर गया कह नहीं सकता।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

नमन बाबूजी को एवम् हमरा श्रद्धा सुमन उनकी स्मृति को!!

गजेन्द्र सिंह said...

श्रद्धा सुमन उनकी स्मृति को
बढ़िया प्रस्तुति .......

कृपया इसे भी पढ़े :-
क्या आप के बेटे के पास भी है सच्चे दोस्त ????

संजय भास्‍कर said...

नमन बाबूजी को एवम् हमरा श्रद्धा सुमन उनकी स्मृति को!!