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Monday, September 20, 2010

एक सच से मेरा सामना !

उस मुर्गे को हलाल करते हुए-
उसके चेहरे पर उभरे तनाव देखकर 
मैंने पूछा !
क्यों इतना जोर लगा रहे हो भाई!
यह तो साधारण मुर्गा है-
हलके रेतने से ही काम बन सकता है.
उसने कहा-छोडो साब,हमारा जोर तो इसी पर चल सकता है.
पता नहीं क्यों , मुझे उस कसाई लड़के के बारे मे जानने की तीव्र इच्छा होने लगी.
पता चला --- नया, नया है, धंधे मे!
परिवार मे कोई नहीं! 
पहले कहीं घरेलू नौकर था,
पता नहीं-कहाँ!
खैर, पूछा मैंने-काम करोगे!
देखा -उसके चेहरे पर कोई उत्सुकता नहीं,
कोई संतुष्टि भी तो नहीं थी-चेहरे पर उसके!
'जवाब नहीं दिया'
मैंने फिर पूछा!
वही तटस्थ उत्तर !
छोडो न साब!
तुम क्या काम दोगे!
बाज़ार से सब्जी लाने  पर चोर कहोगे 
टी.वी देखने पर माँ की गाली दोगे,
पंखे के नीचे बैठने पर- पुरखों का मेरे तर्पण करोगे!
रहने दो! मैं यहीं ठीक हूँ .
सोचता लौट आया मै-
क्या वह  सही कह रहा था! 

3 comments:

Anonymous said...

Sir apka likha hua "ek sach se mera samna "padha,bahut accha laga. Aap sahi me badhay ke patra hai.

रूप said...

Thanx.keep reading.....

KK Yadav said...

आपकी मुर्गा-हलाली और इलाहाबादी होने की सुनकर इलाहाबाद के खूबसूरत दिन याद आ गए..अच्छा लिख रहे हैं आप. ..बधाई.