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Sunday, August 15, 2010

परवाज़

आज देखा था तुम्हे,
जब हौले से ,झटकी थी तुमने जुल्फें तुम्हारी,
कुछ ओस की बूंदें बिखर गयीं थीं .......
सोचा था -थाम लूँ उन्हें , पर सहसा ख्याल आया _
ज़माना भी तो !
क्यूँ नहीं हम , परिंदों जैसे , परवाज़ करते हुए _
उन्मुक्त हो जाते
इन बंदिशों मे ही उलझ कर रह गए हैं
उमंगें और ख्यालात_ परिन्दें हों भी जाएँ ,
परवाज़ कभी मुक्कम्मल होगा.........!

1 comment:

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.