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Friday, October 1, 2010

कटी पतंग-
दूर तक हवा के संग,
उड़ती चली जाती है  -
लहराती डोर ,
हवा के तेज थपेड़ों के बीच!

ना जाने कितनी उमंगें,कितने अरमां -
लेकर उडी थी यह,
वादा किया था,डोर के संग
साथ नहीं छूटेगा
आसमां के दूसरे छोर तक!

छोड़ा साथ-
मंजिल का नहीं है, 
कोई ठिकाना 
दूर तलक-
एक अंतहीन यात्रा
अनुभवहीन!
बस, थपेड़े ही बन कर
रह गयी-नियति.
क्या,कभी चाहा था- परिणाम ऐसा 
पर कौन है-जिसे कारण कहा जाय
तो आओ-फिर उड़ें,
शायद अबकी बार,
आसमां के दूसरे छोर तक 
हो अपना साथ!

3 comments:

संजय भास्‍कर said...

बेहद ख़ूबसूरत और उम्दा

ZEAL said...

तो आओ-फिर उड़ें,
शायद अबकी बार,
आसमां के दूसरे छोर तक
हो अपना साथ!

Let's hope ...

.

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

पतंग, डोर, हवा अऊर आकास के मध्यम से संबंधों का बहुत सुंदर ब्याख्या किए हैं आप...सबसे सुंदर लगता है कि कबिता एक आसा पर समाप्त होता है!!