हो गई आज फिर -
एक डबलरोटी की चोरी!
चौराह पर खड़ा मैं,
भरवा रहा था जब-
गेहूं की बोरी.
तभी, एक उबाल उठा,
भीड़ दौड़ पड़ी -
एक चीथड़े से लिपटी अधेड़ पर
नोंच दिए चीथड़े उसके
सड़क पर पड़े -डबलरोटी के टुकड़े ,
और टुकड़ों से बड़ा फटा चिथड़ा !
विवैयां-झांकती चेहरे से ,
(शायद पैरों मे देखे हों आपने!)
जोश-भीड़ का ,सवाब पर
अपनी मर्दानगी का दम,
दिखाते हुए कुछ नामर्द !.
लो! पुलिस भी आ गई !
घसीट लिया 'चीथड़े को'
थाने तक!
लगे तमाचे, थप्पड़ ,लातें ,जूतें.
वाह री किस्मत !
देखा नहीं ,किसी ने 'पीठ से लगा पेट'
निस्तेज चेहरे पर जब -
हरकत हो गई बंद,
हवाइयां उड़ने लगी-
मर्दों के चेहरों पर!
एक जाबांज सिपाही-
बढ़कर आया,
थानेदार को ढ़ाढस बधाया!
कोई नहीं सर!
'बीचोबीच सडक के डाल इसे
दुर्घटना का रूप देते हैं.'
संतोष की साँस ली
थानेदार ने !
भीड़ ने भी अपनी राह पकड़ी,
और देखा मैंने-
डबलरोटी के चीथड़े
सड़क पर !
2 comments:
मार्मिक रचना.. आए दिन होने वाली! सम्वेदनहीनताकी पराकाष्ठा!!
समाज के संवेदनहीन चेहरे से नकाब नोचने की यह कोशिश...आपको साधुवाद का पात्र बनाती है।
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