जब तुम्हारी ऊँगली थामे .
घंटो भर गलियों के घेरों में
तुम्हारे तोतले स्वर-रस
की मिठास कानो में घुलते.
समय पंख लगाकर उड़ जाता था .
आज का एक दिन है ,जब
तुम्हारे सानिध्य की आस
लगते हैं हम ,
तुम तेजी से निकल जाते हो
सैकड़ों ज़िम्मेदारियों से
आबद्ध, तुम हमे भूल जाते हो !
वो दिन कितने सुखकर थे
तुम्हारी चपलता ,
हमारा रोम-रोम पुलकित करता.
तुम्हे जो ठेस लगती-
दिल हमारा रोता .
तुम्हारी बलैयाँ लेते .
आज का एक दिन है ,जब
दर्द से कराहते हम ,
एक छोटी सी शिकायत करते हैं .
तुम्हे, कहते सुनते हैं
'छोड़ो न यार ,
इनका तो रोज का नाटक है
हम अपनी शाम क्यूँ खराब करें !
2 comments:
बूढ़े होते माँ- बाप का यही सच है ...
सच में समय के साथ कितना कुछ बदल जाता है.... मार्मिक
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