यूँ ही ,बिखरा सा !
ये क्या हुआ....कैसे हुआ......कब हुआ .....क्यों हुआ ......................
और तब .....
नहीं समझ सकते तुम हमारे मन की व्यथा
आकुलता की परिणति नहीं होती शायद !
यदि वेदना हमारे शब्दों
की भाषा का आदेश मानती,
यदि हवा का वेग हमारे ,
मनोभाव संचालित कर पाता तो शायद !
दिल से आती है एक तल्ख़ सी सदा
लगता है ,पिछले कई जन्मो की
गूंज है शायद !
तुम्हारा साथ,
जीवन का हर पल ,
खुशियों की सौगात लाती
तो शायद !
पेड़ों से झरते पत्ते ,
नि:शब्द काली सडक पर
न बिखरते .
अपने झकझोरे जाने पर ,
करते वे प्रतिरोध ,
निर्विरोध नही गिर पड़ते
तो शायद !
कुछ पंक्तियाँ हैं, जो बिखरी पड़ी हैं , इधर -उधर
इन्हें सहेजा होता , तो शायद !
पुरानी उजाड़ सी इक हवेली है ,
रौशनी का इक दीया जलाया होता
तो शायद !
3 comments:
सारी बात शायद पर अटक जाती है ....सुन्दर अनुभूति
यह शायद एक बहुत विकट प्रश्न है... प्ता नहीं कितने सवालों के उत्तर इसमें अटके होते हैं.. लेकिन यह शायद एक पोस्टमॉर्टेम की छुरी जैसा है..मुर्दा हालात पर!!
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 15 -03 - 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
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