Pages

Friday, March 11, 2011

                                  यूँ ही ,बिखरा सा  !

भरी दोपहरी , शब्दों  के  आड़े -तिरछे जंजाल बनाते हुए मैं थक गया तो कलम  उठाकर  ताक पर  रख  दिया . डायरी के पन्ने मेरी ओर बेदिली से ताक रहे थे और मैं नासमझी की मुद्रा में उन्हें ही घूर रहा था . सोचता रह गया -क्या करूँ ! राह पर चलते हुए लंगड़ी घोड़ी की सायकिल , पीछे दौड़ता छोटा सा बच्चा और मकान की खिड़की से झांकती बेजार सी एक अधेड़ स्त्री ! विक्षिप्तता की हद तक परेशां होते हुए, किशोर कुमार की तरंगे कानो में गूंजने लगीं..............
ये क्या हुआ....कैसे हुआ......कब हुआ .....क्यों हुआ ......................
और तब .....


नहीं समझ सकते तुम हमारे मन की व्यथा 
आकुलता की परिणति नहीं होती शायद !

यदि वेदना हमारे शब्दों
की भाषा का आदेश मानती,
यदि हवा का वेग हमारे ,
मनोभाव संचालित कर पाता तो शायद !
दिल से आती है एक तल्ख़ सी सदा
लगता है ,पिछले कई जन्मो की
गूंज है शायद !
तुम्हारा साथ,
जीवन का हर पल ,
खुशियों की सौगात लाती
तो शायद !
पेड़ों से झरते पत्ते ,
नि:शब्द काली सडक पर
न बिखरते .
अपने झकझोरे जाने पर ,
करते वे प्रतिरोध ,
निर्विरोध नही गिर पड़ते
तो शायद !
कुछ पंक्तियाँ हैं, जो बिखरी पड़ी  हैं , इधर -उधर
इन्हें सहेजा होता , तो शायद !
पुरानी उजाड़ सी इक हवेली है ,
रौशनी का इक  दीया जलाया होता
तो शायद !

3 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सारी बात शायद पर अटक जाती है ....सुन्दर अनुभूति

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

यह शायद एक बहुत विकट प्रश्न है... प्ता नहीं कितने सवालों के उत्तर इसमें अटके होते हैं.. लेकिन यह शायद एक पोस्टमॉर्टेम की छुरी जैसा है..मुर्दा हालात पर!!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 15 -03 - 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

http://charchamanch.uchcharan.com/