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Wednesday, December 15, 2010

अच्छा लगता है अपरिचित होना !
दुनियां की भीड़ जब घेरती है, 
सवालों के दायरे मे!
जब अनायास ही कोई दुखती रग पर धर देता है,
खुरदुरा सा हाथ !
जब कर्कश ध्वनि रौंदती है,
कानो के पर्दों को !
जब परिष्कृता को पापिन की,
संज्ञा दी जाती है !
अच्छा लगता है तब
मन कहीं अमराइयों मे ,
गुन्तारे मे खो जाये .
ठंडी हवा  का मादक स्पर्श ,
हौले से टीसते घाव सहलाये .
कोकिल-ध्वनि मादकता लाये 
मन मयूर नाच-नाच जाये .
अच्छा लगता है!

8 comments:

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

मन को छू गई यह कविता! सचमुच अच्छा लगता है आपकी कविता पढना!!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

ऐसे में सच ही स्वयं से भी अपरिचित होने का मन करता है ...अच्छी प्रस्तुति

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपकी पोस्ट की चर्चा कल (18-12-2010 ) शनिवार के चर्चा मंच पर भी है ...अपनी प्रतिक्रिया और सुझाव दे कर मार्गदर्शन करें ...आभार .

http://charchamanch.uchcharan.com/

अनुपमा पाठक said...

सुन्दर अभिव्यक्ति!

Er. सत्यम शिवम said...

bhut hi sundar...ab sabd hi kam pad rahe hai...badhai ho

Kailash Sharma said...

गहन अहसास..बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति..दिल को छू गयी

रूप said...

aaplogon ko mera prayas pasand aaya ,iske liye aapka dhanyawad!

vandana gupta said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।