खूंटी पर टंगा-
बाबूजी का कोट
एक सोंधी खुशबू
एक प्यार भरी डांट !
भविष्य को सचेत करती एक
सलाह !
कितने सपने,कितने अरमानो
कितनी बेफिक्री, कितना सहयोग
उन्मुक्त विचारों ,भावनाओं से
उल्लासित मन !
नहीं जाना था तब
छूट जायेगा यह सब
एक दिन !
'बाबूजी' बन जाऊंगा खुद मैं
नहीं जाना था तब
उस गंभीर चेहरे का दर्द
नहीं सोचा था !
इतनी चिंताएं, इतनी विवशताएँ.
अब समझा है, आज जाना है
उस कोट की बनावट मे
कितने रेशे- कितने सूत
गूंथे हैं!
अब जाना है मैंने
उस कोट की कीमत !
3 comments:
भावनाओं से भरी रचना ....यही यादें हैं जो जीवनपर्यंत चलती हैं ....
कोट के माध्यम से एक पिता के दायित्वों , उसकी पीडा और उसके स्नेह का बेहद उम्दा चित्रण किया है और इंसान को इसका आभास तभी होता है जब वो खुद उस दौर से गुजरता है।
bahut bhaavpoorna rachna!
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