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Sunday, November 14, 2010

इस शहर के रास्ते अजनबी,
मेरी तन्हाई पर मुस्कुराते रहे 
मैं अकेला दूर तक चलता रहा
पर तुम हमेशा याद आते रहे .
रोज़ मरते रहे , रोज़ जीते रहे
ज़हर मिलता रहा, ज़हर पीते रहे 
हम,यूँ ही ज़िन्दगी को आजमाते रहे !
कोई नया ज़ख्म जब दिल पे लगा 
एक दरीचा ज़िन्दगी का खुला 
हम भी आदत डाल चुके ,
चोट मिलती रही, चोट खाते रहे.
पर वह  री आदमियत !
हम फिर भी,हमेशा मुस्कुराते रहे .
लोग मिलते रहे,लोग बिछड़ा किये,
हम भी कश्ती अपनी डुबाते रहे 
जब करीब आया किनारा कोई,
हम किनारे से दूर जाते रहे.
आप मिले थे ज़िन्दगी भर के लिए!
राह यूँ क्यूँ छोड़ जाते रहे !
वफ़ा का वास्ता जब भी दिया ,
तुम बस यूँ ही मुस्कुराते रहे 
रुसवा किया ज़माने ने हमें
हम अपनी ही लय मे गाते रहे 
'रूप' ज़िन्दगी कुछ इस तरह काटी 
रोज खोते रहे , रोज पाते रहे !

3 comments:

Sunil Kumar said...

ज़िंदगी की इतनी विस्तृत विवेचना

अरुण चन्द्र रॉय said...

सुन्दर ग़ज़ल..

ZEAL said...

रोज़ मरते रहे , रोज़ जीते रहे
ज़हर मिलता रहा, ज़हर पीते रहे
हम,यूँ ही ज़िन्दगी को आजमाते रहे !...

Lovely lines !

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