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Sunday, November 7, 2010

माँ

तेरे आंचल की इस छांव  को ,
कब से रहा था , पुकारता 
पर, कौन था जो मुझे 
तेरी तरह दुलारता !
माँ- शायद आज समझा है,
मैंने तेरी, चाह को,
अब क्यों रहूँ मैं, भ्रमित
और किसी की राह को !
स्नेह-सिक्त , आँखें तुम्हारी,
ढूंढती हैं हर घडी ,
लाल की इक झलक को -
रहती रही -घन्टों खड़ी !
समझ ही पाया है कहाँ,
और क्या -समझ भी पायेगा 
ना भी पाकर प्यार तेरा ,
प्यार ऐसा पायेगा  !
दुःख-कष्ट, पीड़ा झेलती 
रहती ललन की याद मे.
आश्रित होती गर, कभी किसी के ,
तो,तात की फरियाद मे !
ठेस जो लगती -कभी,
पांव  मे उसके कहीं
पीड़ा भी होती कहाँ!
दिल मे ही तेरे, तो- तभी 
पर,किसने दिया है तेरी,
कुर्बानियों का  सिला  
सुनते आयें हैं -अब तलक
बेटे को माँ से है गिला !

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