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Monday, November 15, 2010

कभी सोचता हूँ 'उन्मुक्त गगन मे पंछी बन उड़ जाऊं 
कभी फिरूं मैं सागर मे,औ बन मीन लहराऊं .
पर बेड़ियाँ पड़ी पांव मे ,कैसे मैं समझाऊं.
मैं मानव उलझा, सीमायें कैसे कर बिखराऊं !

2 comments:

वीना श्रीवास्तव said...

सीमाएं भी इंसीन को ही तोड़नी है...उन्मुक्त गगन में उड़िए....जरूर उड़िए

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

रूप बाबू! इंसान ने सीमाएँ जानी ही कब हैं. पंछियों की तरह उड‌ने का ख्वाब और मछलियों की तरह सागर के गर्भ में भ्रमण करना, सब सम्भव कर दिया है इंसान ने.. कोई बेड़ियाँ नहीं बनी ऐसी जो इंसान काट न पाए..