शायद पता नहीं तुम्हे
कई बार अश्क जो सूख जाते हैं,
गालों पर लकीर जैसे
एक पूरी कहानी का सामां होते हैं ,
छुपी होती है उन लकीरों में ,
पेट की बे-बसी .
छत से टपकते बूंदों की त्रासदी !
हरियाली नहीं भाती , उन्हें
तुम्हारी तरह, नही निहारते , वे
खूबसूरत तस्वीरें. लहराती वादियाँ,
उन्हें तो धरती भी गोल है, इसका नहीं पता .
रोटी की सोंधी खुशबू का एहसास नहीं होता ,उन्हें .
उन्हें तो बस ,पता है भूख.
जिसे उन सूख चुकी लकीरों से कभी-कभी
बुझा लिया करते हैं.
बड़े गेट के अंदर की रंगीनीयों ,
का भान नहीं होता उन्हें .
वे तो बस , ताक में रहते हैं ,
कब कुत्ते के हाथ लगी रोटी,
उनके कब्ज़े में आ जाय .
और एक पार्टी , आज उनके भी
नसीब का हमसफर हो !
6 comments:
बहुत ही सटीक एवं सार्थक अभिव्यक्ति ।
बहुत संवेदनशील रचना
बहुत संवेदनशील रचना
achhi rachna
बेहद मार्मिक। तस्वीर संयोजन भी उम्दा।
छत से टपकते बूंदों की त्रासदी !
हरियाली नहीं भाती , उन्हें
तुम्हारी तरह, नही निहारते , वे
खूबसूरत तस्वीरें. लहराती वादियाँ,
उन्हें तो धरती भी गोल है, इसका नहीं पता .
रोटी की सोंधी खुशबू का एहसास नहीं होता ,उन्हें .
..bahut badiya samvedansheel prastuti ke liye aabhar!
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