Pages

Monday, April 4, 2011

         इंतज़ार  

 देहरी   पर देर से खड़ा , 
करता रहा था तुम्हारा इंतजार!
तुम नही आये, ना ही आया
 कोई संदेसा तुम्हारा! . 
क्यों इम्तिहानों के दौर से
 गुज़ारा करते हो मुझे . 
सब्र, कहीं तल्खी में न बदल जाये.

चाहा था कई बार, भूल जाएँ तुम्हे. 
गालिबन इश्क की इन्तेहाँ नही होती !.
बदस्तूर ,सीने में चुभन रहती है बरक़रार. 
पर तुम्हे क्या , तुम तो बे खबर हो ,
इश्क का आग़ाज़
 कराया था तुमने ही ,
अब अंजाम से पहले 
साथ क्यूँ  छोड़ रहे हो ! 
मेरी तड़प का गर न हो अंदाज़ा तुम्हे .
पूछ लो , उन हवाओं से , 
तुम्हारी बंद खिड़की से
 टकराकर लौट आती है जो बार - बार ,
अक्स तुम्हारा देखने को बेकरार !
ऐसा  ना हो कि, देहरी पर ही दिया बुझ जाये , 
और.............
तुम्हारी नज़रें बेसाख्ता , दर-ब-दर भटका करे ! 

4 comments:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

अर्थपूर्ण भाव ....उम्दा कविता

रूप said...

aap dono ka dhanyawad.meri kawitayen agar arthpurn hui to pryas sarthak samjhunga !

रश्मि प्रभा... said...

मेरी तड़प का गर न हो अंदाज़ा तुम्हे .
पूछ लो , उन हवाओं से ,
तुम्हारी बंद खिड़की से
टकराकर लौट आती है जो बार - बार ,
अक्स तुम्हारा देखने को बेकरार !
andar ki tivrata saaf shabdon mein hai

Udan Tashtari said...

बहुत खूब!! वाह!