इंतज़ार
देहरी पर देर से खड़ा ,
करता रहा था तुम्हारा इंतजार!
तुम नही आये, ना ही आया
कोई संदेसा तुम्हारा! .
क्यों इम्तिहानों के दौर से
गुज़ारा करते हो मुझे .
सब्र, कहीं तल्खी में न बदल जाये.
चाहा था कई बार, भूल जाएँ तुम्हे.
गालिबन इश्क की इन्तेहाँ नही होती !.
बदस्तूर ,सीने में चुभन रहती है बरक़रार.
पर तुम्हे क्या , तुम तो बे खबर हो ,
इश्क का आग़ाज़
कराया था तुमने ही ,
अब अंजाम से पहले
साथ क्यूँ छोड़ रहे हो !
मेरी तड़प का गर न हो अंदाज़ा तुम्हे .
पूछ लो , उन हवाओं से ,
तुम्हारी बंद खिड़की से
टकराकर लौट आती है जो बार - बार ,
अक्स तुम्हारा देखने को बेकरार !
ऐसा ना हो कि, देहरी पर ही दिया बुझ जाये ,
और.............
तुम्हारी नज़रें बेसाख्ता , दर-ब-दर भटका करे !
4 comments:
अर्थपूर्ण भाव ....उम्दा कविता
aap dono ka dhanyawad.meri kawitayen agar arthpurn hui to pryas sarthak samjhunga !
मेरी तड़प का गर न हो अंदाज़ा तुम्हे .
पूछ लो , उन हवाओं से ,
तुम्हारी बंद खिड़की से
टकराकर लौट आती है जो बार - बार ,
अक्स तुम्हारा देखने को बेकरार !
andar ki tivrata saaf shabdon mein hai
बहुत खूब!! वाह!
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