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Sunday, November 6, 2011

यूँ न इठलाओ !

मदहोश हवाओं में यूँ न फैलाओ आँचल 
बादलों के बरसने का अंदेशा हो जायेगा  !
रुखसार की लाली , इन्द्रधनुष का देती है गुमां  
बेहोश जवानी को मचलने का अरमां हो जायेगा !
गुनगुनाती वादियाँ हैं  , महकती  है ये फ़िज़ा 
यूँ न इठलाओ , धरा  को भी बहारा-जश्न हो जायेगा !
कायनात रंग बदलने को लगती है आतुर 
ज़ुल्फे -इकरार को  भी बयार का गुमां हो जायेगा !  

4 comments:

vandana gupta said...

सुन्दर भावाव्यक्ति।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत सुंदर ...

Rajnish tripathi said...

क्या बात है.... लिखते थे कभी ख्वाब में दिल को तरख्त समक्ष कर... बहुत खूब लिखा है...
कभी हमारे ब्लॉग पर अपना दस्तखत करे...

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

:)