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Wednesday, March 21, 2012

एक भूली सी याद !



भूलती नहीं तेरी वो मनोहारी सूरत !
कलकत्ते में बस की खिड़की से देखा था जो ,
आयी नहीं , सपने में भी कभी , ऐसी अनिंध्य सुंदरी
दिल के तारों को धड़का सके जो !
आज, जब उम्र के तीसरे पड़ाव पर हूँ मैं ,
सुविधा-संपन्न ज़िन्दगी , जिसके पांव चूमती है
सामाजिक हैसियत भी, जिसे कहते हैं लोग
कुछ कम नहीं है फिर भी ,
भूलती नहीं , तेरी वो देह-यष्टि
तेरी अनमोल काया -
तू, जो भी थी,
 तू, जो भी है
तू, जहाँ कहीं भी है
तू, जैसी कहीं भी है !
मेरा प्रणय-निवेदन तुझ तक पंहुचा ,गर
उसे स्वीकार कर लेना !
मुझे कृतार्थ कर देना !
यह निवेदन , 'दान्ते'  के 'बीट्रिस' की
तरह तो नही ,
फिर भी, तू यदि इसे समझ सके
तो,
इसे 'पूजा के फूल' के सदृश
स्वीकार कर लेना !
मुझे कृतार्थ कर देना !

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