पाकी , सुधरोगे नहीं तुम!
फितरत नहीं है तुम्हारी
सुधरने की !
बारूद के ढेर पर बैठे ,
अपनी ही चश्म से
देखते हो तुम
दुनिया को !
ज़िल्लतें , सौगात हैं
तुम्हारे लिए !
इंसानियत का पाठ
तुम नहीं पढ़ पाओगे !
कितनी बार, कितनी ही बार
पीटे गए हो तुम,
पीठ दिखाकर भागे भी ,
पर फिर वही .........
ये जो निर्दोष मानवता का
खून तुम करते हो
क्या हासिल है, तुम्हे !
शायद यही सीखा है
तुमने , क़ि तुम अशांत रहो
और रहे सारी दुनिया भी !
कितनी ही, कोशिशे
ज़ाया की हैं
तुमने. इंसानियत हासिल
करने की !
अब तो सुधर जाओ,
जाओ, मुआफ़ किया हमने
इस बार भी !
पर अब नहीं,
बदलो दिमाग़ अब अपने
नेस्तनाबूद हो जाओगे वरना .
फ़लक के सितारे तो,
न बन पाओगे.
मुमकिन है, राख हो जाओ !
और, अपने किये की सज़ा पाओ !
5 comments:
संवेदनशील रचना.....
नहीं सुधरने वाले यह ... संवेदनशील रचना
बेहद संवेदनशील रचना।
चेतावनी देती हुई संवेदनशील रचना .........
रूप जी, हमें भी तो ज़रूरत है अपनी शक्ल आईने में देखने की.. अपने चहरे के किसे दाग नज़र आते हैं!! आपकी भावनाएं सम्मान योग्य हैं, लेकिन समस्या सिर्फ यही नहीं है!! प्रधानमंत्री कहते हैं वे हमारी कमजोरी का फायदा उठा रहे हैं.. हम और कमज़ोर.. शर्मनाक तो ये बात है!!
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