पहाड़ियों से टकराते ,
रेत से रोके जाते
सिर पीटते , शोर मचाते ,
नदी- अपना रास्ता ,
खुद ही बना लेती है!
राहों से गुजरते ,
लोगों को देकर-तृप्ति ,
पहुँचती है-
खेतों की वीरानियों तक
और,उन्हें हरा-भरा कर देती है!
आज हम , जब कर रहें हैं -तुम्हे विदा -
तो बस -एक ख्याल आता है,
तुम भी पहुँचो,
अपने मक़ाम तक.
अपने मक़ाम तक.
रोशन कर दो- तुम्हारा जहाँ ,
खुशियाँ चूमें- तुम्हारे कदम,
और हम -हाथ उठायें ,
करें-धन्यवाद इश्वर का
संतोष की साँस लेकर,
आँखों के कोरों को भिगोयें
और कहें -
सार्थक हुआ -प्रयास हमारा!
सार्थक हुआ -प्रयास हमारा!
2 comments:
कविता की ज्यादा समझ तो नहीं है फिर भी अच्छी लगी .....
एक बार इसे भी पढ़े , शायद पसंद आये --
(क्या इंसान सिर्फ भविष्य के लिए जी रहा है ?????)
http://oshotheone.blogspot.com
bahut hee sahee tulna hai aur behad sundar bhav
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