मन डरता है.
यह सोच कर कि क्या कभी हम उसे प्राप्त कर पाएंगे ,जिसके लिए प्रयासरत हैं, पर मन यह सोचकर भी तो डरता है कि जो हमने पाया है ,कहीं वो हमसे छूट न जाय ! तो क्या परिणति है ,मन को डरने से रोका जाय या उसे समझाने का प्रयत्न किया जाय कि यह डर अनावश्यक है , और इसका कोई आधार नहीं है . हरिवंश राय बच्चन जी ने लिखा है 'अपने मन का हो तो अच्छा,अपने मन का न हो तो और भी अच्छा ',क्योंकि उसके लिए इश्वर ने कुछ न कुछ निर्धारित कर रखा है ! तो फिर मन क्यों डरता है. अक्सर महसूस करता हूँ मैं , एक बुद्धिजीवी जितना सशंकित रहता है अपने भविष्य को लेकर, उतना एक अनपढ़ मजदूर नहीं, अगर ऐसा नहीं होता तो आज जितने भी अनाचार , दुराचार या अनियमितताएं समाज मे व्याप्त हैं ,शायद उतनी नहीं होती. राह चलते शायद देखा हो आपने... एक बंजारन जितनी आश्वश्त होती है अपने भविष्य को लेकर,उतना एक पढ़ी-लिखी संपन्न महिला नहीं होती,मुझे लगता है, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उनमे एक डर शायद अपनी कमी को लेकर होता है.
मन मे उठती -गिरती तरंगों, भावनाओं , उमंगों ...क्या कहें इसे ...खैर, जो भी हो ... एक कविता की शक्ल बन रही है , नोश फरमाएं.........
कहते हैं -'अपने मन का हो तो अच्छा
मन का ना हो तो और भी अच्छा !
जानता है मन
मानता नहीं.
उधेड़-बुन भी एक शगल है शायद !
मन-अक्सर उदास हो जाता है
अक्सर बुनता है नए ख्वाब
कभी होनी ,कभी अनहोनी
कभी अतिहोनी
भी चाहता है मन!
मन-वश मे नहीं होता
मन ,अंकुश भी नहीं मानता
देवत्व से दानत्व की ओर
भागता है मन !
मन-अवश घोड़े सदृश भागता है
तोड़ता है नियमों की जंजीरें
कभी अच्छा, कभी बुरा
सोचता है मन !
नही मानता है मन
विरोध करता है मन
मान्यताएं, रीतियाँ , संस्कार , रिवाजें
तोड़ने को आतुर,
उत्प्रेरित करता है मन
नहीं मानता है मन !