Pages

Tuesday, June 28, 2011

अनायास ही !

टकटकी लगाये हुए देखता हूँ तुम्हे 
महसूसता हूँ कंपन तुम्हारे लबों का !
तुम्हारे काजल की धार 
तुम्हारे फड़कते अभ्र 
कितना  खुशनसीब हूँ मैं ,
जो तुम्हे पाया है ----------
"उम्र ढ़लती जाती है 
बुढ़ापा देने लगा है दस्तक 
चांदी की चमक -
झाँकने  लगी है बालों में "
तुम कहती हो .

मुझे लगता है -
और भी खूबसूरत हो गयी हो तुम !

तुम्हारे नक्श आज भी ,
इक अंगड़ाई का कारण है .
स्मित तुम्हारा -
एक मादक संगीत का दस्तक !
तहाते हुए मेरे कपडे 
सजाते हुए मेरी थाली 
और-
कभी हिचकी लेते ही दौड़ना -
पानी के ग्लास के लिए !
तुम कितनी अच्छी हो !

छोड़ आई अपनी देहरी 
जहाँ गुड़ियों के लिए कभी -
सहेजती थीं कपड़े !
लगाती थीं 
बालों में महकता फ़ूल!
आज देखता हूँ तुम्हे-
सहेजते हुए घर की तक !
सजाते हुए 
दरवाज़े पर एक रंगोली !
तुम कितनी खुबसूरत हो !

मेरे ये शब्द ,
क्या कभी -
देंगे तसल्ली 
तुम्हे !
क्या समझ पोगी तुम 
कितनी कसक उठती है 
तुम्हारा साथ, तुम्हारा स्पर्श पाने को !
आज शब्दों के ताने-बाने
बुनकर "अनायास ही "!
तुम कितनी खुबसूरत हो !