स्वर्णिम आज़ादी का तुम,
सहृदय, उपभोग करो।
आये कभी न पराधीनता ,
ऐसा कोई प्रयोग करो ।
होना , आधीन-`आधुनिकता` के
अनुपयोगी, दुश्कर ,संगीन ,
खुशियाँ -मन की नहीं पाओगे ,
हो जाओगे ,देखो-ग़मगीन।
हे-युवा ह्रदय,यह विनती है,
संस्कृति-उन्नत करो।
यह विश्व करे गुणगान तुम्हारा,
हर क्षण यह ,प्रयत्न करो।
यह राष्ट्र ,विश्व के मस्तक पर,
एक उच्च ध्वजा , सा लहराए ।
सुख-शांति, समृधि, मैत्री का ,
हम विश्व मे नाम तो कर जाएँ ।
तुम, दास नहीं, तुम -मालिक हो ,
अपने ही कृत्य, सत्कर्मों का
देखो-कुछ ऐसा `कर्म ` करो-
स्वर्णिम गौरव हो , जन्मों का।
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