Pages

Friday, December 31, 2010

नव वर्ष मंगलमय हो 
नव हर्ष मंगलमय हो
जीवन मे आयें खुशियाँ
'उत्कर्ष' मंगलमय हो !
सभी ब्लॉगर बंधुओं को नव वर्ष'२०११ कि हार्दिक शुभकामनायें.  
 

Tuesday, December 28, 2010

गाँव की पगडंडियों से गुजरते हुए सूझती है ये कविता, और मन भावुक हो उठता है, उन यादों को समेट कर  दिल के किसी कोने मे अंकित कर लेना चाहता हूँ! चाहता हूँ यह पल यहीं रुक जाय, पर ज़िन्दगी शायद ऐसे मे थम जाएगी, और..............


वो सोंधी सी खुशबू -
जब पानी की फुहारें ,
मेरे खेत की मिट्टी पर पड़ती हैं !
मदहोश कर जाती है-
महकते गुड़ की ख़ुशबू.
जब आंच पर पकते गन्ने का रस -
एक सुरमई रंगत लिए उबलता है !
याद आता है -
माँ का आंचल ,
जब धूप से जले
लाल,अंगार हुए गालों पर फेरती थी वो !
लेती थी बलैयां.
पोंछ देती थी 
सारी तपिश !
और चढ़ता सूरज भी 
जब हार जाता था 
उस आंचल की छांव-घनेरी से !
आज यह वैभव, यह ऐश्वर्य भी फीका है  
जब उन घड़ियों की याद आती है 
और मैं यह सोचता बैठा हूँ 
कोई लौटा दे मेरे -
वो बीते दिन ,
वे स्वर्णिम पल-छिन !

Sunday, December 26, 2010

बेसाख्ता छलक आये नीर नैनों से
तुमने जो मेरे  काँधे  पे हाथ धर दिया !
मैं तो यूँही बेचारा सरे-राह फिर रहा था 
तुमने मेरे धूप को साया कर दिया !

Wednesday, December 15, 2010

अच्छा लगता है अपरिचित होना !
दुनियां की भीड़ जब घेरती है, 
सवालों के दायरे मे!
जब अनायास ही कोई दुखती रग पर धर देता है,
खुरदुरा सा हाथ !
जब कर्कश ध्वनि रौंदती है,
कानो के पर्दों को !
जब परिष्कृता को पापिन की,
संज्ञा दी जाती है !
अच्छा लगता है तब
मन कहीं अमराइयों मे ,
गुन्तारे मे खो जाये .
ठंडी हवा  का मादक स्पर्श ,
हौले से टीसते घाव सहलाये .
कोकिल-ध्वनि मादकता लाये 
मन मयूर नाच-नाच जाये .
अच्छा लगता है!

Tuesday, December 14, 2010

कभी पली थीं खुशफहमियां तेरे आगोश मे 
अब तो गर्दिशे-बहार के दिन आ गये !

Friday, December 10, 2010

मन डरता है.
यह सोच कर कि क्या कभी हम उसे प्राप्त कर पाएंगे ,जिसके लिए प्रयासरत हैं, पर मन यह सोचकर भी तो डरता है कि जो हमने पाया है ,कहीं वो हमसे छूट न जाय  ! तो क्या परिणति है ,मन को डरने से रोका जाय या उसे समझाने का प्रयत्न किया जाय कि यह डर अनावश्यक है , और इसका कोई आधार नहीं है . हरिवंश राय बच्चन जी ने लिखा है 'अपने मन का हो तो अच्छा,अपने मन का न हो तो और भी अच्छा ',क्योंकि उसके लिए इश्वर ने कुछ न कुछ निर्धारित कर रखा है ! तो फिर मन क्यों डरता है. अक्सर महसूस करता हूँ मैं , एक बुद्धिजीवी जितना सशंकित रहता है अपने भविष्य को लेकर, उतना एक अनपढ़ मजदूर नहीं, अगर ऐसा नहीं होता तो आज जितने भी अनाचार , दुराचार या अनियमितताएं समाज मे व्याप्त हैं ,शायद उतनी नहीं होती. राह चलते शायद देखा हो आपने... एक बंजारन जितनी आश्वश्त होती है अपने भविष्य को लेकर,उतना एक पढ़ी-लिखी संपन्न महिला नहीं होती,मुझे लगता है, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उनमे एक डर शायद अपनी कमी को लेकर होता है. 
मन मे उठती -गिरती तरंगों, भावनाओं , उमंगों ...क्या कहें इसे ...खैर,  जो भी हो ... एक कविता की शक्ल बन रही है , नोश फरमाएं.........

कहते हैं -'अपने मन का हो तो अच्छा 
मन का ना हो तो और भी अच्छा !
जानता है मन 
मानता नहीं. 
उधेड़-बुन भी एक शगल है शायद !
मन-अक्सर उदास हो जाता है 
अक्सर बुनता है नए ख्वाब
कभी होनी ,कभी अनहोनी 
कभी अतिहोनी 
भी चाहता है मन!
मन-वश  मे नहीं होता 
मन ,अंकुश भी नहीं मानता
देवत्व  से दानत्व  की ओर
भागता है मन !
मन-अवश घोड़े सदृश भागता है
तोड़ता है नियमों की जंजीरें 
कभी अच्छा, कभी बुरा 
सोचता है मन !
नही मानता है मन 
विरोध करता है मन
मान्यताएं, रीतियाँ , संस्कार , रिवाजें 
तोड़ने को आतुर,
उत्प्रेरित करता है मन 
नहीं मानता है मन !
                बस यूँ ही .............!
बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी !
तेरे जुल्फों की घटाओ से महक आएगी .
मैं जो तन्हा हुआ , तू भी तो पछताएगी
मेरे हालात से भी तू  तो  न बच पाएगी  
और तन्हा भी जो हुआ मैं तो, तन्हा न रह पाउँगा 
मेरी तन्हाई तेरी यादों मे बस जाएगी 
रुखसत ना कर अब ऐ,  इस गमे -दिल को
हर धड़कन से बस तेरी सदा आएगी !

Tuesday, December 7, 2010

उस्तादजी के ब्लॉग पर देखा चित्र इस कविता का जनक है , इसलिए यह कविता भी समर्पित है उस्ताद जी को ! 

पैर से पंचर बनाते हुए 
देखे नहीं होंगे 
किसी ने 
निशान !
जो उसके पैरों के साथ ही उभर  आये  होंगे 
उसके दिल पर!
तल्खियों मे डूबी चीख किसी ने नहीं सुनी होगी 
उसके मन की!
इज्ज़त की दो रोटी कमा ले ,
यह सोचकर -
कितने दर्द सहे होंगे उसने !
हिकारत से देखा होगा कितनो ने 
शायद कुछ ऐसे भी होंगे , 
जिन्हें सामयिक टिपण्णी नुमा दया आई होगी !
कुछ वे भी होंगे ,
जिन्होंने एकाध रूपये के लिए -
चिख-चिख मचाई होगी 
पर जो तन्मयता 
जो इमानदारी 
जो परिश्रम 
उसकी पेशानी की 
बूंदों को 
आयी होंगी .
क्या जवाब दे पाएंगे वे
जो सवारी करते हुए
ठंडी बयार पर 
आहें भरते होंगे !

Sunday, December 5, 2010

क्या लिक्खूं!
तुम याद आती हो !
या कि याद आती है 
उस घर की,
जहाँ तुम पोंछती होंगी
दीवार से सटे 
ताक़ पर लगाई हुई 
मेरी और तुम्हारी तस्वीर!
पूजा घर मे तुम्हारा 
बाती बनाना !
आरती की थाल-सुबह-शाम
सजाकर -
प्रज्जवलित लौ से घर को
प्रकाशित करना !
इश्वर से प्रार्थना करते हुए 
परिवार, बच्चों के
कुशल-मंगल की ताकीद करना !
या फिर -
घर से बाहर निकलते 
मंदिर मे माथा टेकना !
रसोई मे घुसकर 
हर-एक की फ़रमाईशों  पर
कुर्बान होना !
कभी खुद का नहीं -
पर बेटे-बेटियों के लिए
आश्वाशन मांगना !
क्या लिखूं
तुम याद आती हो !

Saturday, December 4, 2010

बहुत दिनों के बाद एक कविता पोस्ट करना चाहता हूँ. कविता क्या है , एक पुरानी याद है , जो घर के कोने मे दीवार से लिपटी पड़ी है. मै इसे हटाना भी नहीं चाहता . चाहता हूँ अपनी याद शेयर करुं.........................आपके साथ बाँट लूँ इसे.

खूंटी पर टंगा-
बाबूजी का कोट
एक सोंधी खुशबू
एक प्यार भरी डांट !
भविष्य को सचेत करती एक 
सलाह !
कितने सपने,कितने अरमानो
कितनी बेफिक्री, कितना सहयोग 
उन्मुक्त विचारों ,भावनाओं से 
उल्लासित मन !
नहीं जाना था तब
छूट जायेगा यह सब 
एक दिन !
'बाबूजी' बन जाऊंगा खुद मैं
नहीं जाना था तब 
उस गंभीर चेहरे का दर्द
नहीं सोचा था !
इतनी चिंताएं, इतनी विवशताएँ.
अब समझा है, आज जाना है 
उस कोट की बनावट मे
कितने रेशे- कितने सूत 
गूंथे हैं!
अब जाना है मैंने 
उस कोट की कीमत !