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Tuesday, September 28, 2010

आज  सोचा , एक नया नाम दूँ अपने  पोस्ट को, बड़ी देर लगी यह सोचने मे की कौन सा नाम उपुक्त होगा, आखिर ,अर्थ भी तो निकलना चाहिए ना ,किसी नाम का, तो 'अनुभूति' कुछ ठीक लगा. सच तो यही है, कि अपने जीवन काल मे तमाम अनुभवों को ही तो आखिर शब्दों का रूप दिया जा सकता है .(अगर लफ्फाजी ना की जाय तो,)खैर, उमड़ते-घुमड़ते विचार, विचारों का तारतम्य, वैसे कुछ चालाकी भी! हाँ, अपने लिए नहीं .पर मुझे कई बार लगता है, कि अधिकतर हम वो पढ़ते  हैं, जो पढना  नहीं चाहते ,अनायास ही! अभी-अभी दो ब्लॉग पोस्ट्स पढ़ी है मैंने, और मुझे लगा, समय बर्बाद कर रहा हूँ मै अपना, अब कोई छींके,तो ब्लॉग, कोई पा..  ,तो ब्लॉग. ये क्या है भाई, अरे कुछ ऐसा लिखें ,जिसका अर्थ हो, और कुछ नहीं ,तो भाषा का ही मर्म समझ मे आये, चलो, कई बार casual होना ठीक है, पर उसकी भी कोई सीमा होनी चाहिए.अब आप कहेंगें' किसी ने ज़बरदस्ती तो की नहीं, कि आप पढो ही' पर, कहा ना मैंने, कई बार अनायास ही ....... मैं अपने विचार थोप नहीं रहा हूँ, और यह भी सच है कि बुद्धिजीवियों के बीच एक सार्थक बहस की आवश्यकता ,अवश्यम्भावी है.तो फिर , क्यूँ ना कुछ ऐसा लिखे , जिसका समुचित अर्थ हो , जो झकझोरे, उद्वेलित करे , और मंथन के लायक हो .और कुछ नहीं हो तो संवेदनशील तो अवश्य हो, मैं जनता हूँ , सभी सहमत नहीं हो सकते मेरे इन भावों से. पर मुझे लगता है कि इस पर कम-से -कम एक सोच तो ज़रूरी है, आप क्या कहते हैं......?

Monday, September 27, 2010

क्या नाम दूँ,इसे!

वो चिर-परिचित,चिरनवीन मुस्कान 
तुम्हारे मादक अधरों की,
देखता है,पूनो का चाँद
तुम्हे क्या,खबर नहीं इसकी?


चांदनी,बिछी जाती है
तुम्हारे कोमल पैरों के तले
ये भोलापन,कहाँ से पाया है,
बताओ ना! ये अदाएं हैं किसकी
सांसों की महक -तुम्हारी.
जैसे खिल उठे अगणित चन्दन-वन
अधखिले अंगों का मधुमास!
अधीर होता है, पागल मन.
प्यास बढाती है,
महक,तुम्हारी वेणी की.


आओ ना, 
हाथों मे हाथ लिए,
हम दूर चलें.
मंजिल हो नई,
धूप हो तुम्हारे ,चेहरे का 
छांव हो,तुम्हारे आँचल की !

Saturday, September 25, 2010

रोटी !

रोटी- बता,कितने इंसानों का खून किया है तूने!
हैवान बनाये कितने,
मासूम बिगडाए कितने 
औ कितनो को सुकून दिया है तूने!


तेरी ही खातिर -
रिश्ते बदलते देखा,
इंसानों को जानवरों का
 मुखौटा पहनते देखा 
फिर भी, रूप तेरा है कितना सुन्दर !
कितनी है नादाँ 
है कितनी भोली,
तूने ही तो अपने लिए,बहनों की इज्ज़त तोली
बता-ये एहसास तो दिया है तूने
की तू मजबूत है बहुत!
बिन तेरे चल नहीं सकता 
ये  जहाँ !
अस्तित्व भी तो खोएगा-हर एक इंसां यहाँ
कितने अस्तित्व, खोने को मजबूर किया है तूने!
रोटी-बता , कितने इंसानों का खून किया है तूने!

Thursday, September 23, 2010

बाबूजी

आज पितृपक्ष की पहली तिथि को बाबूजी की याद आ रही है, और उन्ही को समर्पित है मेरा यह आलेख, क्योंकि आज मै जो कुछ भी हूँ,उन्ही की वज़ह से . मेरा ख्याल है कि इस बात से लगभग ८०% लोग सहमत होंगे, शायद गलत भी हो मेरा ख्याल.
बाबूजी बड़े गुस्सैल व्यक्ति थे , परन्तु इतना भर कह देने से उनके व्यक्तित्व का आकलन नहीं हो सकता, किसी भी व्यक्ति मे केवल एक ही गुण या अवगुण नहीं होता और समग्र व्यक्तित्व को जानने के लिए एकपक्षीय भी नहीं हुआ जा सकता.हम छः भाई बहन हैं , पांच भाई और एक बड़ी बहन. मैं सबसे छोटा हूँ और शायद बाबूजी को बहुत कम जान पाया हूँ , पर बाबूजी मुझे सबसे ज़्यादा प्यार करते थे. 'प्यार'-उस सामाजिक व्यवस्था मे ,जब अपने बच्चों के प्रति लाड़ प्रदर्शित करना अपराध था और सामाजिक अवहेलना की दृष्टि मे आता था. खैर, बाबूजी को ऐसा  लगता था क़ि मै शायद जीवन मे सफल नहीं हो पाउँगा और इसलिए भी वे मुझे लेकर आश्वस्त नहीं थे. मुझे ,तब ज्ञान नहीं था क़ि जीवन मे कुछ बनने के लिए परिश्रम की ज़रूरत होती है, और मै अलमस्त जीवन के मज़े ले रहा था, हम दो सबसे छोटे, मैं और मुझसे दो-तीन साल बड़े मेरे भाई, समानरूप से मित्रता और शत्रुता करते हुए बढ़ रहे थे. मेरे भाई को फिल्मो का शौक था और मेरे कपड़ों, पेंसिलों,चप्पलों या यूँ कह लें कि मेरी नफासत पर उनका अधिकार दबंगई कि हद तक था. पिताजी हम दोनों  भाइयों  को साथ ही बिठाकर पढ़ाते. पढ़ाना कम और पिटाई ज़्यादा होती, क्योंकि हम बाल-सुलभ आदतों के कारण पढने मे कम और लड़ने मे अधिक रूचि लेते थे.बाबूजी बड़े सामाजिक व्यक्ति थे और लोगों पर उनका प्रभाव भी था , गाँव के लोग उनसे सलाह-मशविरा के लिए आते रहते और ये कार्यक्रम हमारी उपस्तिथि मे होता,क्योंकि हम वहां पढाई के लिए मौजूद होते.पिताजी तब बड़े सामाजिक और जागरूक हो जाते थे. और घर मे माँ और भाभी कि शामत!(उन्हें चाय जो बनानी पड़ती थी ),उस समय हमें लगता था , बाबूजी कितने शांत हैं,अब समझ मे आता है, जब मेरे बच्चे बड़े हो रहे है, कितना सार्थक था ,बाबूजी का गुस्सा ! बाबूजी ,जब तक रहे उनका ठसका कभी कम नहीं हुआ, बुढ़ापे मे भी , जब वे अशक्त हो गए, और बिस्तर पकड़ लिया,तब भी उनका स्वाभिमान कम नहीं हुआ,और अशक्त होते हुए भी उन्होंने हमेशा स्व-धीन ही रहना चाहा . आज बाबूजी कि सीख,मेरे मन-मस्तिष्क मे जीवंत है, 'कभी भी स्वयं की नज़रों मे गिरने वाला काम न करो! 'बाबूजी का स्वर्गवास ०९ अक्तूबर २००९ को उस वक़्त हुआ जब मै All India Radio इलाहबाद अपनी रेकॉर्डिंग के लिए जा रहा था,और जैसा कि बाबूजी का आदेश था, अपने वर्तमान को कभी भी भविष्य के लिए न टालो , मैंने भी रेकॉर्डिंग पूरी कि और तभी उनकी अंत्येष्टि के लिए गया!
फ़िलहाल यही श्रधान्जली है मेरी, हमारे बाबूजी के लिए..........बाकी फिर कभी.................

मै रो पड़ा था!

तुम्हारी वाणी -भादो की उछ्रिन्खलता ,
मन मेरा गाने लगा था 
तुम्हारे ह्रदय मे पूर्णता ढूंढ रहा था मै!
विलीन-पूर्व मुहूर्त की वो स्मृति,
नभ के तारे भी जब क्लांत थे 
तुमने मुझे अभय दिया था !
उच्छवासित आवेग से-
काँपा था मेरा मन,
फिर भी पूछा था मैंने -तुमसे,
तुम-कितनी समर्पित हो,मेरे लिए!
'सम्पूर्ण' तुमने कहा था 
ऐसी पूर्णता, किसी ने न दी मुझे-
मै रो पड़ा था! 

कभी तो पूछो हाल हमारा.............


कभी तो पूछो हाल हमारा,
कभी तो हंस कर बातें कर लो!
माना हम,नहीं प्यार के काबिल
रंगीं इक सौगात तो कर लो!
कभी तो पूछो हाल हमारा......

खातें रहें हैं, कसमे तुम्हारी 
दिन हो खाली,या रातें भारी
तिरछी चितवन,हम पर डालो 
दे दो इक रुमाल ही प्यारा
कभी तो पूछो हाल हमारा.........

आओ भींगें, रिमझिम बूंदों मे 
मन,तन औ जीवन हर्षाएं 
एक-दूजे के साथी होकर
बुनें एक प्यारा,जाल सितारा
कभी तो पूछो हाल हमारा........

लहराते गेसू तुम्हारे,
तुम जो आये पास हमारे
गुंजित कर,मन-उपवन को,
महकाया संसार ये सारा
कभी तो पूछो हाल हमारा..........!

Monday, September 20, 2010

एक सच से मेरा सामना !

उस मुर्गे को हलाल करते हुए-
उसके चेहरे पर उभरे तनाव देखकर 
मैंने पूछा !
क्यों इतना जोर लगा रहे हो भाई!
यह तो साधारण मुर्गा है-
हलके रेतने से ही काम बन सकता है.
उसने कहा-छोडो साब,हमारा जोर तो इसी पर चल सकता है.
पता नहीं क्यों , मुझे उस कसाई लड़के के बारे मे जानने की तीव्र इच्छा होने लगी.
पता चला --- नया, नया है, धंधे मे!
परिवार मे कोई नहीं! 
पहले कहीं घरेलू नौकर था,
पता नहीं-कहाँ!
खैर, पूछा मैंने-काम करोगे!
देखा -उसके चेहरे पर कोई उत्सुकता नहीं,
कोई संतुष्टि भी तो नहीं थी-चेहरे पर उसके!
'जवाब नहीं दिया'
मैंने फिर पूछा!
वही तटस्थ उत्तर !
छोडो न साब!
तुम क्या काम दोगे!
बाज़ार से सब्जी लाने  पर चोर कहोगे 
टी.वी देखने पर माँ की गाली दोगे,
पंखे के नीचे बैठने पर- पुरखों का मेरे तर्पण करोगे!
रहने दो! मैं यहीं ठीक हूँ .
सोचता लौट आया मै-
क्या वह  सही कह रहा था! 

Sunday, September 19, 2010

roop_theblogger: मै हूँ !

roop_theblogger: मै हूँ !: "सखा मेरे ,मुझे पाओगे तुम-नग्न शिशुओं की भीड़ मे ,मैं वहीँ हूँ ! प्रेम के मंदिर मे,तूफ़ानो के परिचित जगत मे,प्रतिदिन तुम्हारे व मेरे-सुखी दिन..."

kaise prakat karen apne udgar, jabki bandishen hazaron hai zindagi ki.ab to karar pane ko bekarar hain, chain shayad hi payenge kabhi..........................

Saturday, September 18, 2010

बूँदें बहार की!

खिडकियों से झांकते अक्स-
रिमझिम बूँदें बहार की,
चिथड़ी धोती से लिपटा
एक बुढ़ापा! 
न जाने किन ख्यालों मे है -
ये जहाँ,
कि हम खुशहाल हैं 
सोने कि इस धरा पर.
पर, जो निकाल रहे हैं ,
सोना, इस धरती का-
क्या उन्हें पत्थर भी है उपलब्ध 
एक घर बनाने को?
क्या,लकड़ी मयस्सर है उन्हें ,
बनाने को एक खिड़की,
और झाँकने को-
रिमझिम, बूँदें -बहार की!


Thursday, September 16, 2010

मैंने भी बहना सीख लिया

मैंने भी बहना सीख लिया
पानी के इस रेले मे ,
जीवन की आपाधापी मे
मैंने भी ढहना सीख लिया.

जब कभी नज़र फेरा मैंने
विगत भूत था चुपचाप खड़ा
पढने का करता हुआ प्रयत्न ,
जीवन के किंचित आखर को
ठेला इसको,उसको खींचा 
बढ़ जाऊं  मै आगे की और
पर रहा खिसकता हरदम मै 
छोर कोई, पूरा ना मिला 
आखिर,छोड़ा प्रयत्न अपना 
धेले मै ढहना सीख लिया 
जीवन  की आपाधापी मे
मैंने भी बहना सीख लिया 

क्यूँ करुं कोई, शिकवा या गिला 
कर सकता था जो,वही किया
नियति ने जो कुछ रक्खा था 
बस था मेरा और मुझे मिला .

बस हुआ यही पूरा सपना
सपने मे जीना सीख लिया
जो मेरा था , पाया मैंने
बाकी न कभी कोई भीख लिया 
मैंने भी बहना सीख लिया.......








Tuesday, September 14, 2010

डोलो ना !

यादों के भंवर से उबरो ना ,
चुप न बैठो,कुछ तो बोलो ना 
कलियाँ, चमन मे खिलखिलाती हैं,
तुम भी मन के द्वार खोलो ना !

जो बीत गया वो सपना था,
जो साथ है अब, वही सच है
तुम संग रहे,गमगीनी के,
बहारों के संग अब हो लो ना!

पंछी भी शोर मचाते हैं,
नव सुर मे तुम्हे बुलाते हैं
लहराओ,गाओ इनके संग
इस नव सुर मे तुम डोलो ना!  

जो पाया तुमने,वो सुखकर था 
जो खोया, भूलो उसे अभी 
जो बीत गया,वो सपना था 
जीवन मे उसको तो, लो ना !
                              -रूप  

बधाइयाँ व शुभकामनायें.

हिन्दी दिवस कि ढेरों बधाइयाँ व शुभकामनायें..............

सरोकार !

मैंने अक्सर ये शब्द सुना है , मेरा कोई सरोकार नहीं है इन बातों से, और फिर मैं सोचने पर मजबूर हो जाता हूँ , क्या सचमुच!, क्या सचमुच,हम इतने असंवेदनशील हो गए हैं , कि कुछ बहुत सी महत्वपूर्ण बातों का हमसे कोई सरोकार नहीं होता, घर मे , कार्य के दौरान , मनोरंजन करते हुए, यहाँ तक कि आराम फरमाते हुए भी हमें सरोकार होता है, अपने आसपास के वातावरण से... और फिर भी महज़ औप्चारिक्तावस या यूँ ही हम कह देते हैं , हमारा कोई सरोकार नहीं है. मेरे एक परम मित्र हैं, मेरे साथ ही कार्यरत, बड़े ही सज्जन और बुद्धिमान . उम्र के तीसरे पड़ाव पर आकर, जैसा कि स्वाभाविक है ,थोड़े दार्शनिक और भगवद्भक्त हो गए हैं, पर वास्तविकता इसके इतर है, और कभी-कभी मुझे लगता है (वैसे ये मेरी व्यक्तिगत सोच है!)  के सचाई यह नहीं है , और जैसा कि व्यवहार से भी परिलक्षित होता है,
सरोकार सामाजिक कैसे हो पायें जब तल्खियाँ यूँ बढती जातीं हैं!
तुम कहते हो, है ये दुनिया का दस्तूर _पर क्या वो जिस्म जो जुदा हुआ ,कहीं पहले भी जुड़ा था .
मेरी गुज़ारिश थी ,ये ज़माना शायद कभी तो  समझ पायेगा , 
पर उफ़, ये ख्वाहिशें तो खाली दामन छू कर लौट आयीं.
इल्तिजा है ,ये मेरी उन हवाओं से , जो तुम तक भी ले जातीं हैं संदेशा प्यार का, 
पर रह गए टूटे अरमानों से ,.ये इल्तिजा भी यूँ ही बेआवाज़ होकर रह गयी.
खैर................. मैं कवि-ह्रदय होने के नाते अपने उदगार इन शब्दों से प्रकट करूँगा. पसंद आये या न भी आये तो भी, अपनी राय मुझे अवश्य दें, क्योंकि, मैं भी थोडा confuse हूँ...! उदगार पढ़ें!


कल शाम ही तो,मिला मुझसे-
भूत मेरा !
कहने लगा  -यार तुम नहीं सुधरोगे! 
पूछा मैंने-क्यों भई !ऐसा क्या कर दिया है मैंने.
कहने लगा-
यार, तुम न तो  चरण स्पर्श करते हो, 
ना ही करते हो-स्तुति गान,
तुम्हारा तो बस-
'परनिंदा' व आलोचनाओं मे ही रहता है ध्यान.
देखो, समझो, सीखो,
संसार के विधान को.
यदि चाहते हो उचाइयां छूना ,
तो, छोडो आलोचनाओं के ध्यान को!
रम जाओ,मक्खन लगाओ .
हो सके -नहीं-नहीं!
हो या न हो-पर,
कव्वे को हंस बताओ.
यार, तुम्हारा बिगड़ ही क्या जायेगा 
तुम्हारे कहने भर से -कव्वा तो हंस नहीं हो जायेगा.
हाँ, पर इतना अवश्य है -कि तुम ,
परेशानियो से बच जाओगे ,
धूनी रमोगे,
और!
बिना'हींग लगे न फिटकरी'
'चोखा ही चोखा' कहलाओगे!
                                    -रूप'
 

मैं और शब्द !

किताब के लिखे हर्फ़-
अक्सर पूछते हैं मुझसे,
'क्या है कसूर हमारा'!

कभी तुम हमें बनाते हो ,
आंसुओं का सवब,
कभी ये चेहरे के शिकन 
बन जाते है!
कभी 'गमगीनी' के बादल-
तो कभी , आशाओं के सौगात लाते हैं! 
खिलौनों के चाबीओं की मानिंद ,
उमेठ देते हो,कभी तुम!
कभी-गिरा देते हो फर्श पर,
तो कभी 'अर्श' के सितारे बना देते हो 
हम-केवल मनोरंजन के सामा हैं ,
तुम्हारे लिए !

मैं कहता हूँ-भाई मेरे,
तुमने ही तो जहाँ बनाये हैं ,
ख्वाब पूरे किये तुम्ही ने-
तुम्ही ने आशियाँ बसाये हैं.
तन्हाइयों को राहत दिया है,
तुम्ही ने .
तुम्ही ने तो ,
'इंसां' बनाये हैं!

हर्फ़ का एक टुकड़ा -
मुस्कुराता है.
फ़िलवक्त खेल रहे हो, तुम हमसे,
उकेरते हो अक्स हमारा -
कठपुतलियों की मानिंद -
खेंच देते हो डोर हमारी ,
और,
ढील देकर ,कभी हमें पुचकारते हो!

फिर वही ,शिकवा -वही शिकायत,तुम्हारी!
हम नहीं हैं, खेंचते  डोर ,
तुम ही हमें बांध लेते हो,   
उँगलियों को हमारे,
देते हो जुम्बिश,
'अक्स ' अपना ,खुद ही-
बना लेते हो!


Monday, September 13, 2010

आज मैं आपको एक कहानी सुनाता हूँ, कहानी तो सामयिक भी हो सकती है, और हो सकता है कि आपको ये कुछ पुरानी या सुनी हुई सी प्रतीत हो . पर है खालिस उपयोगी .और present scenario को suit भी करती हुई , तो चलिए अब देर नहीं करूँगा और आपको कहानी की और सीधे -सीधे ले चलता हूँ , अरे, अरे , भई ..पहले माफी तो मांग लूँ , अगर कही ,किसी मोड़ पर मैं  hinglish  हो गया तो मुझे माफ़ कर दीजियेगा, क्यूंकि, खालिस हिंदी लिखना या पचाना  आजकल के फैशन मे नहीं है;तो साहब कहानी कुछ यूँ है...
किसी एक राज्य मे एक राजा था , अरे भई, ज़ाहिर सी बात है, राज्य है तो राजा भी होगा. तो खैर, राजा बड़ा ही न्यायपूर्ण, सदाचारी और God fearing था! (ओह.हो .फिर वोही हिंगलिश.). उसके राज्य के सभी लोग बड़े ही खुशहाल और संतुष्ट थे. पर जैसा की हमेशा से होता आया है, ऊपरवाले को कुछ उल्टा सा सूझा और लो, राज्य में अचानक भयानक सूखा पड़ गया.  पेड़- पौधे, पशु -पक्षी , दानव-मानव! , जंतु-जानवर, सभी  परेशान, दुखी और बेहाल.  राजा , चूँकि दयावान और न्यायप्रिय था , उसने राजकोष मुक्त हस्त से खोल दिया , गरीबों का पेट भर गया, और गरीबों से ज़्यादा दबंगों का !(अरे भई, सलमान खान का नहीं) , भटक मत जाइये , कहनी का आनंद लेना हो अगर, तो थोड़े कम शाब्दिक होइएगा.. हाँ, तो , लोग संतुष्ट हो गए , और उपरवाला निराश ! फिर कुछ दिन बड़े आनंद से बीते, और फिर ऊपरवाले को परेशानी हो गयी, (आखिर उसे भी तो काम चाहिए!) तो जनाब, उसने इस बार खूब बारिश की, इतनी, इतनी और इतनी, क़ि भयानक बाढ़ आ गयी . लोग फिर परेशां, राजा के पास पहुंचे, राजा से गुहार लगाई पर इस बार राजा नहीं पिघला. राज्य मे भयानक अशांति का वातावरण फ़ैल गया, लोग एक-दूसरे को लूटने लगे, सौहाद्र और शांति का ह्रास (कुछ ज़टिल हिंदी तो नहीं है न! ) हो गया, ..रानी से रहा नहीं गया, उसने भी राजा से विनती की , पर राजा को न तो पिघलना-पसीजना था , न पिघला,न ही पसीजा . 
राज्य में एक शिक्षक रहता था, उसने अपनी और से प्रयास किया और , पता लगा ही लिया . उसको  पता चला  कि राजा तो वही था , पर सूखे के दौरान उसका मंत्री था -तोता, और अब इस भयानक बाढ़ के समय मंत्री हो गया है -कोव्वा !. तो ज़नाब , अब मैं इस कहानी को यहीं समाप्त करता हूँ और आपसे इजाजत लेता हूँ. पर रुकिए.. मेरे एक प्रश्न का उत्तर अवश्य देने कि कृपा करियेगा! ...कहानी सामयिक है या असामयिक........................................! और क्या , राजा सचमुच राज्य का उत्तराधिकारी बनने के काबिल था !

Sunday, September 5, 2010

तो!

तल्ख़ होने से पहले,रिश्ते गर भुला दें तो
महफ़िल के जगमगाते सितारें,बुझा दें तो
तुम्हारे साए के मुन्तजिर, क्यों रहें हम,
इनके नाजो-अंदाज़  ही मिटा दें तो !


चलो, रहमो-करम रहा, तुम्हारा अब तलक
जिए तो ऐसे कि,जिंदगानी गाती रही अब तलक
और देखो,किस कदर रुसवा किया ज़माने ने 
अस्तित्व ज़माने का ही दिल से हटा  दें तो !


तुम न सही,कोई न कोई तो है दिले बेकरार 
किसी को रहता तो है,हमारा भी इंतज़ार
तुम न आये तो आ जायेगा कोई और भी 
तुम्हारे इंतज़ार कि शमा अब हम,बुझा दें तो!

अरे मियां,मुझे भी तो नेट पर बैठना है!

बड़ा मज़ेदार एक वाकया याद आ गया आज यूँ ही, मेरे एक मित्र ने फोन किया, कहने लगे " यार, आज नेट पर बैठा" , बहुत ही इंटरेस्टिंग शगल है .क्या सचमुच..क्या नेट पर बैठ सकते है , वैसे शाब्दिक तौर पर मुझे लगता है, अगर नेट पर बैठे भी तो,क्या सचमुच बैठना हो पाता है, कुछ-बाएं से ,कुछ दायें से और कुछ बीच से निकल नहीं जाता!और अगर निकल जाता है , तो बैठने का आनंद कहाँ आया ? आराम मिला क्या! नहीं , मेरी बातों पर गौर फरमाएं और नेट पर बैठने के बाद महसूस करें कि जो चाहा था , जो सोचा था , या कि फिर जो कुछ भी ज़ेहन मे था , क्या उसे कर पायें! कहीं दिग्भ्रमित तो नहीं हो गए! रास्ता तो नहीं भटक गए. चलिए मैं आपको, आगे की कहनी सुनाता हूँ .वैसे ये कहानी  नहीं हकीकत है  पर रुकिए  "कहने चला था गमे दिल कि दास्ताँ, कह बैठा रूमानियत की कहानी". आप सोचेंगे...यार,या तो ये खुद बहक गया है या फिर हमें बहका रहा है , पर नहीं ,यह 'चंडूखाने की गप्प ' बिलकुल भी नहीं है,न ही यह कोरा बकवास है, हम अक्सर करना चाहते हैं कुछ और, और हो जाता है कुछ और! भई मियां, मै सच कह  रहा हूँ .न हो तो आजमा लीजिये और नेट पर बैठ कर देख लीजिये ,फिर अगर मेरी बात सही साबित न हुई , तो जो काले चोर की सजा ,वो मुझे! तमाम fake id 's भरे पड़े हैं नेट पर ,कोई rock कर रहा है तो कोई cool है.और तो और , बुढ़िया ने जवानी की फोटू लगा रखी है और खालिस "भैसा " खूबसूरत बालिका बना बैठा आपको ललचा रहा है, कुछ तो ऐसे भी मिल जायेंगे जो हैं तो पुरुष "अरे भई-so called ",पर महिला बनकर न केवल आपका खून जला रहे हैं , बल्कि आपकी जेबें भी ढीली कर रहे हैं. मैंने अपने उन मित्र महोदय को एक शुद्ध , ताज़ी ,सरसों के  तेल मे तली हुई सलाह दे डाली "भैये, ज़रा संभलकर, कहीं सिर मुड़ाते ही ओले न पड जाएँ "... पर जैसा कि होता आया है.सलाह भी कहीं मानने की चीज़ है, और वह भी मुझ जैसे नाचीज़ की अनचाही सलाह, सो नहीं माने और किसी नवयौवना  चेल्सिया  से दोस्ती गाँठ बैठे. और फिर शुरू हुई ,फ्री chatting ..नशा कुछ और चढ़ा, जैसा कि आमतौर पर होता है , मियां  बन बैठे मजनू और लगे फुनियाने. धीरे -धीरे नशा और चढ़ा और बात डेटिंग तक आ गई .पहले तो अगले  ने  खूब गच्चा दिया और  इनके खून को  पानी बनाकर पिया. फिर एक दिन इन्हें एक ख़ास जगह पर आमंत्रित किया गया, भैये सज धज कर पहुंचे , सोचा था मीठी ,मधुरा, के होठों की मदिरा पियेंगे,पर पड गए लेने के देने ! निर्धारित स्थान पर कुछ चार -छह इनके जैसे ही मजनू  पहुंचे , इन्हें बड़े प्यार से अँधेरे कोने मे सरका लिया और दे दनादन ! खूब खातिरदारी  हुई  इनकी और साहब जो बन -सँवरकर चेन से सुसज्जित होकर पहुंचे थे उसे गवांकर, पिटे-पिटाये घर पहुंचे. घरवालों ने जब इनकी प्यारी सी सूरत पर map बना देखा,तो लगी पुछायी ! साहब क्या कहते ,कहा - "मुँह के बल गिर पड़ा था". मेरी मुलाकात पर इन्होने " तीसरी कसम " के नायक की तरह कसम खाई , कि अब chatting संभलकर करूँगा और netting पर भी पूरा का पूरा बैठूंगा. तो भैय्ये , नेट पर बैठिये , पर संभलकर.............
अच्छा , अब बन्दे को दीजिये इजाजत. अरे मियां,मुझे भी तो नेट पर बैठना है!

नजराना

मौसम का ये नजराना ,तुम्हारे लिए है
तुम गाओ,न गाओ,तराना तुम्हारे लिए है
गम के साए मे ही, उलझकर रह गए हो क्यूँ!
जहाँ मे खुशिओं का खज़ाना, तुम्हारे लिए है
हर पल एक बोझ,दिल पर लिए फिरते हो-
हर वक़्त देते हो गर्दिशों की दुहाई !
तुम समझो  गर, इसे ऐ मेरे हमदम 
हर रह आशिकाना,तुम्हारे लिए हैं!

रातों को !

न दिन को चैन है, न करार है, रातों को
अब तो बस खुमार ही खुमार है ,रातों को
इक अक्स तैरता रहता है,चश्म मे हरदम,
अब तो  उस अक्स के बीमार हम,रातों को
याद आये के न आये,कुछ और भी ऐ दिल,
याद आ ही जाता है,यार हमें, रातों को
कहें किससे हम अपने गम-ए- दिल की दास्ताँ 
हर शख्स ही जब है,बेजार, रातों को .
  

Saturday, September 4, 2010

एक विचार

एक संपूर्ण आईने से झांकती है-
टूटी हुई एक तस्वीर ,
चेहरे पर है शिकन,पेशानी पे है बल !
अचानक,हवा के एक हलके झोंके ने -
तोड़ डाला है आइना _
दर्पण का टुटा हुआ एक अंश-
आवाज़ देकर कहता है _
'सभ्य समाज' ! देखो, इस अंश मे मेरा _
एक संपूर्ण अस्तित्व समां गया है. 
 

Friday, September 3, 2010

ख़त तेरा मिला है !

ख़त तेरा मिला है !
नेह के जो फूल, बरसाए  हैं तूने
एक नया सपना सजा लिया है 
अब न हमें कोई गिला है
ख़त तेरा मिला है !
आस तेरी ही यहाँ थी मुद्दतों से,
निराशाओं के बादल छंट गए हैं 
अब नए अरमानों का सिलसिला है 
ख़त तेरा मिला है!
तेरे वादों की नई लिस्टें आईं हैं 
आज वर्षों बाद फिर सजदा किया है 
मन मे उमंगों का सागर हिला है 
ख़त तेरा मिला है !

तुम पहले ही गर, बता देते !

आए भी__चले भी गए 
खबर हो न पाई .
दावानल से जूझता ही रहा था ये दिल,
तब फिर  तुमने ही दी थी एक बार -
ज़माने की दुहाई ! 
आखिर क्यूँ ---
हर बार ही होता है ऐसा ,
क्या अस्तित्व  की पनप  भी सीमित होती है  !
फिर लो ही क्यूँ, ऐसे कुछ रिश्ते 
खो जाते हैं जो, अँधेरे मे,गुमनामी के
महज़ दिल की तसल्ली को ,
तुम हर बार ऐसा करते हो .
कोई न कोई तो, कहीं न कहीं ,
ठेस पहुँचाता ही है .
ठोकर पत्थर के ही होते हैं-
अब तक तो यही समझा था .
प्यार की मार होगी इतनी गहरी
तुम पहले ही गर, बता देते................!


 

Thursday, September 2, 2010

'आदर्श '

संसार के विधान का-
एक दृश्य यह भी है की,
एक 'आदर्श ' की काट है -
एक दूसरा आदर्श!
पर हम ऐसा  भी तो नहीं कर सकते कि-
इन काट कि खातिर ,
चढ़ा दें इन आदर्शों कि बलि ,
हम पालेंगे आदर्श 
यह जानते हुए भी कि,काट है उसकी-
परन्तु-गर हम चाहे तो, देखे तो,
पाएंगे एक आदर्श को 
एक दूसरे आदर्श के-
समरूप!

तुम --

तुम ----
खिलती कली सी, जूही की   
मदिरा  के छलकते प्याले सी.
तबस्सुम, लबो का तुम्हारा 
'रूप' कविताओं सा तुम्हारा
समर्पित हर लक्ष्य को,
शायद तुम, और केवल तुमही ,
हो सकते हो------साथी मेरे !

Wednesday, September 1, 2010

संपूर्ण

तुम्हारी वाणी -भादो  की उछ्रिन्खलता,
मन मेरा गाने लगा था .
तुम्हारे ह्रदय मे पूर्णता,ढूंढने लगा था मै!
विलीन- पूर्व-मुहूर्त की वो स्मृति ,
नभ के तारे भी जब क्लांत थे ,
तुमने मुझे अभय दिया था!
उच्छवासित आवेग से -काँपा था मेरा मन,
फिर भी पूछा था -मैंने तुमसे
"तुम कितनी समर्पित हो मेरे लिए!"
'संपूर्ण'_तुमने कहा था ,
ऐसी पूर्णता,किसी ने न दी थी मुझे,
मैं रो पड़ा था !

मै हूँ !

सखा मेरे ,
मुझे पाओगे तुम-नग्न शिशुओं की भीड़ मे ,
मैं वहीँ हूँ ! 
प्रेम के मंदिर मे,तूफ़ानो के परिचित जगत मे,
प्रतिदिन तुम्हारे व मेरे-
सुखी दिनों के पास आके खड़ा !
यदि थोड़ी सी उमंगों की बयार -
चमक लाये , लगे तन पर,
बाद उसके खोकर अनाम -
मरुस्थल मे!
कालवैशाखी की चोट खाकर,
फट पड़े शिउली की मानिंद ,
पाओगे मुझे ,साथी मेरे-
मैं वहीँ हूँ!
वाकिफ़ हैं,तू इस राह नहीं आएगी,
फिर भी जाने क्यूँ ,दर पर आस लगाये बैठे हैं !.........

कुसूर अपना

पूछेंगे तुमसे कुसूर अपना -गर कहीं मिलोगे तुम!
खामियां गिनवायेंगे हम अपनी,
हमें तो यही लगा था ,पूजा किये पत्थर की -
फूल चढ़ाये  गलत चौतरे पर.
काश, समझ पाए होते पहले हम-
तुम वो नहीं, जिसकी मूरत सजाई थी कभी हमने-
अपने मन-मंदिर मे .
पर- इतना तो यकीं है ,हमें भी,
कभी  न कभी  -याद हमारी तुम्हे भी आएगी,
तद्पोगे तुम  भी उन -लम्हातों को याद कर-
पछताओगे  तुम  भी कभी खो कर हमें.
तड़प रहेगी ,तुम्हे -हमारे लौट कर आने की 
पर लौट कर कभी-आ न पाओगे!